Monday, 22 July 2013

जैसे जैसे किताब पढ़ रहा हूँ तो जैसे छोटी छोटी जिंदगियों की परतें खुलती चली जा रही हैं । कितने ही ऐसे चरित्र सामने आ रहे हैं जिनकी सदाशयता, उच्चाशयता और नैतिक बोध की हम अनदेखी करते हैं , भारद्वाज जी की तीसरी आँख ने उनको आसानी से न केवल पकड़ लिया है वरन उसको अपने सहज अंदाज  में व्यक्त भी कर दिया है । भाषा में उर्दू की छोंक पूरे प्रकरण  को गंधवान बना देती है । बहरहाल , एक विश्वसनीय पृष्ठ मेरी जिन्दगी का हिस्सा बन रहा है । आपकी मेहनत  खूब रंग लाई है है ।इसके लिए बधाई अन्यथा भारद्वाज जी किसको हाथ धरने दे सकते थे ।

No comments:

Post a Comment