अक्सर हिंदी प्रेमियों में हिंदी के लिए एक ललक और आतुरता रहती है । जो
स्वाभाविक और जरूरी है । हम अपनी जन-भाषा और जातीय भाषा को आदर और प्यार
नहीं करेंगे तो वे लोग कहाँ से आयेंगे जो यह करेंगे । रहा अंगरेजी के सामने
कई जीवन-क्षेत्रों में हिंदी के पिछड़ जाने का सवाल , तो ऐसा अकेले हिंदी
के साथ ही नहीं ,दुनिया की उन सभी भाषाओं के साथ हुआ है जो उपनिवेशवाद का शिकार रही हैं । हमारे देश की सभी भाषाओं का हाल यही है । इसका कारण है वह औपनिवेशिक युग जिसमें हमारे देश की सभी भाषाएँ पीछे धकेल दी गयी । साहित्य में तो वे अपने संघर्षों के साथ आगे बढी किन्तु विज्ञान और समाज-विज्ञान की दुनिया में फिसड्डी रखी गयी ।हमारे देशी शासक वर्ग ने भी तोते की तरह औपनिवेशिक शासन की भाषा सीखने में ही अपनी भलाई समझी । बेहतरीन तरीके की गुलामी वे अपने मालिक की भाषा में ही कर सकते थे । हमारे हिंदी समाजशास्त्रियों , हिंदी वैज्ञानिकों और हिंदी राज नेताओं , नौकरशाहों और उद्योग -उपक्रमों की अंग्रेज एवं अंगरेजी परस्ती की वजह से भी
ऐसा हुआ । भारतीय समाज में वैज्ञानिक स्वभाव को विकसित न कर पाने की वजह
से भी ऐसा हुआ । भाग्यवाद ने कर्मवाद को दबाए रखा । आज भी हालात बहुत बदले नहीं हैं । टी .वी चेनलों पर जिस तरह भाग्यवाद की घुट्टी
पिलाई जा रही है उसमें यह कैसे संभव है कि हम हिंदी को अपने मौलिक और
जमीनी सोच से समृद्ध बना सकते हैं । अब तो अंगरेजी के साथ हिंदी भी बनी रहे
,यही गनीमत है । यद्यपि सामान्य जन की ताकत से वह आगे बढी है , आगे भी उसी के बल पर आगे बढ़ेगी ।
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