Thursday, 10 October 2013

दिल्ली किसे नहीं जाना पड़ता
पर मुझे कभी
अच्छा नहीं लगा
दिल्ली जाना
मनभावन तो कभी नहीं
जैसे सुरसा के मुख में
प्रवेश कर रहा हूँ


वहाँ बहुत तरह के लोग हैं
अच्छे भी बुरे भी नामचीन
पर मुझे कभी अच्छा नहीं लगा
दिल्ली जाना
धनवान, बुद्धिमान , वैभव-संपन्न
शक्तिवान कितने तरह के लोग
चौड़ी चमकती सड़कें
बल खाते कमल की पंखुड़ियों -से
खिलते और चलते पुल

लाल किला
जहां १ ५ अगस्त का सूरज
हर साल उदित होता है

आकाश छूती क़ुतुब मीनार
और आदमी से सौदागरों में
बदलते शतरंज के खिलाड़ी
१ ९ १ १ में राजधानी वाली
घेर-घुमेर नई दिल्ली
बिल्लीमारान में कभी
मेरे पिता  रहे थे
गरीबी के दिनों को
फसल की तरह काटने की
 चाह लिए

दिल्ली लुभाती है
बाँध लेती है गले को
जैसे लोभ पाश में
फिर होने लगते हैं
आत्मा के सौदे
आजादपुर मंडी  में
जैसे आलू-प्याज के

वह डराती है
प्यार के सरोवर भी होंगे
वह खुद को प्यार करते रहने
की देती है सीख
दिल्ली बहुत अच्छी है
भव्य है आलीशान है
 अजायब घर जैसी
सब कुछ अपने में समेटे हुए । 
 

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