Saturday 26 October 2013

आज भी छोटे शहरों और कस्बों में बड़े बड़े जाति - सम्मलेन होते हैं और उनमें अपनी ताकत दिखाकर किसी भी राजनीतिक दल से टिकिट मांगे जाते हैं ।जातियों की कुरीतियों को हटाने और उनमें महिला की   दुस्थिति पर ज्यादा कुछ नहीं होता । इस बात पर तो शायद ही कोई चर्चा होती हो कि एक जाति के भीतर दो जातियां होती हैं । एक जाति का अमीर वर्ग और दूसरा गरीब वर्ग । एक ही जाति के गरीब्वर्ग से गरीब ही रिश्ता करता है उसका अमीर वर्ग अपनी ही जाति के गरीब को अपने से नीची हैसियत का मानकर अपने दरवाजे तक से दूर रखता है । किन्तु   जाति  का मनोवैज्ञानिक और  सामाजिक बंधन इतना जटिल है कि वह नौकरी  लगाने , ट्रान्सफर कराने , कोर्ट कचहरी का काम कराने और इसी तरह की धंधों से जुडी बातों में जन दबे-छुपे नज़र आता है तो उसकी विविध रंगों भरी भूमिका को मानना पड़ता है । भले वह सच न हो , वास्तविकता तो है ।आजकल जाति -सम्प्रदाय  राजीतिक मोर्चे पर सबसे प्रभावी हैजहां से सत्ता के स्रोत निकलते हैं । सत्ता के खेल से कौन बचा है क्योंकि जीवन में हरेक का कोई न कोई काम मौजूद है । खुद का नहीं है तो बेटे बेटियों का है , दोस्तों का है । कोई न कोई हथकंडा अपनाए बिना इस व्यवस्था में केवल नैतिकता के आधार पर शायद ही किसी का कोई काम हो ।  अभी कुछ दिन बाद ही  अखबारों में पढ़ लेना जब विधान सभा- क्षेत्रों के अनुसार  अखबार जाति -मतदाताओं की संख्या जारी करेंगे ।जाति और सम्प्रदाय विकट  पहेली है । पूंजीवादी व्यवस्था आने पर यह हटनी चाहिए थी लेकिन कृषि-प्रधान अर्थ व्यवस्था के चलते हमारे जैसे देशों में पूंजी और सामंती प्रवृतियों का गठजोड़ हुआ  इसलिए हमारे  यहाँ जाति -सम्प्रदाय आर्थिक -राजनीतिक प्रक्रियाओं  में भी संगठनकारी  भूमिका निभाते हैं । यदि कृषि का सही मायने में औद्योगीकरण  होता तो यहाँ  भी जाति -वर्ण-सम्प्रदाय की चूलें ढीली होती । कहने का मतलब यह है कि आज तक भी हमारे कृषि-सम्बन्ध नहीं बदले हैं । १ ८ ९ ४ का अंग्रेजों द्वारा बनाया हुआ ---भूमि अधिग्रहण क़ानून -----आज तक चला हुआ आ रहा था । उसकी जगह २ ० १ ३ में नया क़ानून आया है । कृषि-जीवन की उपेक्षा सर्वत्र है   । 

No comments:

Post a Comment