Friday, 11 October 2013

बदलने होंगे रास्ते

इन रास्तों पर
रोपे  जा रहे  हैं बबूल
ताकि बिखरे रह सकें कांटे
रास्ता  जो
खुद नहीं खोज सकता
वह सांप की तरह 
दूसरों के बनाए बिलों की
तलाश करता है

यह समय
दूसरों को धक्का देकर
अपना घर बनाने का समय है
अपने प्रासादों को
उठाने का समय है
यहाँ खेतों की दर्द भरी कहानी सुनने को
कोई तैयार नहीं
यहाँ पोखर के किनारे
बगुलों का बसेरा है
जो केवल आखेट करने की कला जानते हैं
अब स्मृतियाँ धोखा खाने लगी हैं
क्वार में बरसे मेघों की सिफ्त को
भूलने में जो अपना भला समझते हैं
उनसे अब कोई उम्मीद नहीं

जब ये नीम -पीपल की काठी वाले
लोग खड़े होंगे
तब ही बदलेगा
लाल किले की प्राचीर से दिया
राष्ट्र के नाम संबोधन ।

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