भूमि सुधार होना ही पर्याप्त नहीं है , उनको लागू करवाना उससे भी कठिन और महत्त्वपूर्ण कार्य है । अब तो रीयल एस्टेट वालों ने अपना रिश्ता भूमि से जोड़ लिया है जो अकूत मुनाफ़ा बटोर रहे हैं । हमारे यहाँ के मजदूर संगठन भी खेती के पुराने जातिवादी -सम्प्रदायवादी संस्कारों से ग्रस्त रहते हैं ।वे आते तो कृषि-क्षेत्रों से ही हैं । शहर में आकर उनका धंधा बदलता है बिरादरी नहीं बदलती । इसलिए हमारे यहाँ कृषि-संगठन ही सारे संगठनों की बुनियाद ठहरता है । मध्यवर्ग भी उसी के संस्कारों की लपेट में रहता है । रोटी और सुविधाएं तो सभी को चाहिए , जब जीवन में नैतिकता का क्षरण होता है तो पुरानी काम की चीजें याद आने लगती हैं और व्यक्ति का कमजोर मन चुपचाप , दबे पांव उसके पीछे चलने लगता है । जो नहीं चलता , वह "निराला' हो जाता है ।
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