Tuesday 22 October 2013

निलय उपाध्याय की कविता
जीवन का कोई विकल्प नहीं -----------
निलय  बहुत सलीके के व्यक्ति हैं और सलीकेदार कवि भी । अपने समय के सबसे सक्रिय और संघर्षमय जीवन और उसकी परिवर्तनशील प्रक्रिया में स्वयम सक्रिय  और गतिवान रहते हुए वे काव्य-रचना करते चले आ रहे हैं । गाँव से लगाकर महानगरीय जीवन की यातना उन्होंने झेली हैं । इसके बावजूद वे टूटे नहीं । जिन्दगी की गहरी से गहरी खाई और खड्ड उन्होंने देखे ही नहीं , भोगे भी । उनकी कविताओं को पढ़ते हुए मुझे लगता रहा जैसे कोई मेरे बहुत नज़दीक आकर मेरे कान में जीवन के मधु-तिक्त रसों को घोल रहा है । एक ऐसी कविता , जो अपनी ओर खींचती है । जिसे पूरा पढ़ना पड़ता है , यह आज बहुत मुश्किल है । निलय ने अपनी एक जगह बनाई है , वे अपनी जगह से विचलित नहीं होते । उनको मुम्बई से भी अपना आरा दिखाई देता है जैसे सूर - मीरा को ब्रज दिखाई देता था , कबीर को भोजपुर और तुलसी-जायसी-मंझन -कुतुबन  को अपना  अवध । यहाँ तक कि भूषन, ठाकुर और ईसुरी  कवि को अपना बुंदेलखंड । हर  कवि की अपनी जमीन होती है , उसकी संकीर्णता नहीं । यह उसके मुक्त विचरण का जनपद है , जिसके बिना कविता पूरी नहीं होती । यहाँ उसे मनुष्य के चेहरे मिलते हैं और थोड़ी बहुत मनुष्यता के भी दीदार यहीं होते हैं । जो उम्मीद के लिए जरूरी है ।
            अपनी कार्मिकता,जीवन-दृष्टि और विश्वबोध से जिस तरह वे अपने समय के वस्तुगत को आत्मगत करते हैं और आत्म की वस्तु-गतता  की अभिव्यक्ति  करते हैं ,वह किसी भी तरह के लोभ-लालच से कोसों दूर है । यह उनकी भाषा-भंगिमा से पता चलता है । कवि खुद मेहनत के सरोकारों से निकला है । वह खेत की हर मेढ़ पर जैसे घूमा है , खलिहानों की गर्माहट को जिसने भीतर तक संजोया है । इसीसे उनकी निजता का सृजन हुआ है । एक साथ उनके तीन कविता संग्रह पढने को हासिल हुए ----अकेला घर हुसैन का (१ ९ ९ ३ ) , कटौती (२ ० ० ० ) और जिबह -बेला ( २ ० १ ३ ) । वे किसान - जीवन के अनुभूति-संपन्न रचनाकार हैं । आज जब एक अच्छा भला किसान आज की महानगरीय आवारा पूंजी के व्याघ्र-व्यूह में फंसता है तो वह आत्महनन तक पंहुच जाता है । इससे जो बचैनी और त्रास कवि को भीतर तक हिला देते  हैं ,उनसे निलय की कविता एक झरने की तरह फूट  पड़ती है अपनी पूरी  मार्मिकता और जन-वैचारिकी के साथ ।  यही खूबी है कि आज भीडभाड भरी कवियों की दुनिया में उसका चेहरा अलग से पहचान में आता है और उसके पास बैठने को मन करता है । कविता वही तो होती है , जो अपने पाठक को झाला देकर खुद अपने पास बुलाती है । इसलिए अपने समय की जन-वैचारिकी और भाव -सलिला से उसकी गहरी और जीवन-विधायिनी संगति  होना जरूरी होता है । कविता का स्थापत्य कई स्तम्भों पर टिका होता है । किन्तु वे एक दूसरे से इतने सटे होते हैं कि उनको  अलग करने का मतलब होता है , वास्तु का बिखर जाना । यहाँ कविता की वस्तु  और
वास्तु दोनों का भेद मिट गया है ।
निलय की काव्य-भाषा का व्याकरण भोजपुर जनपद की जमीन तक ले जाता है । इससे हिंदी की काव्य-भाषा और समृद्ध हुई है । अपने गाँव, खेत , खेतिहर किसान और उससे सटे शहर-कस्बे ' आरा के चौक ' की तरह देश में हर जगह ऐसे 'आरा चौक ' हैं जहां खेतिहर मजदूर अपने श्रम के बदले में गुजारे लायक , कभी वह भी नहीं , पा लेते हैं । इन सब की खबर अपने दूसरे संग्रह की कविताओं में   निलय , मनबोध बाबू को  पात्र लिखकर देते हैं । ये स्मृति -शेष चन्द्र भूषन तिवारी है , जिनका जन-वैचारिकी के प्रसार और तदनुरूप आचरण करने में बहुत बड़ी भूमिका रही है । सच तो यह है कि निलय का प्रेरक व्यक्तित्त्व वे ही हैं । इस पूरे संग्रह का नेतृत्त्व उनके  ही हाथों में है । ऐसा क्यों है , कवि बतलाता है -----
                                                   एक तुम्ही हो , जो नष्ट करने की इस क्रूरतम तकनीक को विकास
                                                   नहीं मानते । इस विशाल ब्रह्माण्ड से निकल कर मेज की दराज में
                                                    नहीं अत पाते ।
जो लोग मुक्त छंद में लिखी जा रही कविता में 'सम्प्रेषण-बाधा' की शिकायत अक्सर करते रहते हैं , उनको एक बार निलय की कविता अवश्य पढनी चाहिए किन्तु एक शर्त के साथ कि उन्हें  श्रम की ताकतों से सहानुभूति हो । निलय लोक की धरा के कवि हैं , जो मेहनत  और मेहनतकश  के दर्शन पर टिकी हुई है , जो निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार , मुक्तिबोध ,कुमारेन्द्र , कुमार विकल , विजेन्द्र , ज्ञानेंद्रपति, मानबहादुर सिंह आदि कवियों की परम्परा की अगली कड़ी है । वे एक कद्दावर किसान-कवि हैं । यह तो बानगी मात्र है । उनकी कविता की ताकत का पूरा उदघाटन नहीं । बस इतना ही कहना है कि उनके यहाँ जीवन की कोई कमी नहीं , वह जीवन से लबालब है और यही उसकी सबसे बड़ी खूबी है ।

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