Sunday 6 October 2013

आज कई दिनों बाद फेस बुक पर आया ,। बीच- बीच में छोड़ देता हूँ । लगता है कहीं इसकी लत न लग जाये । आज  आदरणीय विजेन्द्र जी का तुलसी ,दलित और वर्ग-चेतना से सम्बंधित लंबा वक्तव्य पढ़ा  । तुलसी को लेकर यह बहस बहुत पुरानी है । प्रगतिशीलों-जनवादियों में भी दो धड़े रहे हैं जिनमें एक धडा तुलसी को उनकी  कुछ चौपाइयों के आधार पर प्रगति-परम्परा में नहीं मानता । सवाल परम्परा का है । हमारी कलाओं में बहुत कुछ ऐसा है जो हजारों साल चले सामंत -काल  में व्यक्ति और वर्ग-शोषण के आधार पर निर्मित हुआ है । किन्तु हम वहां इस पक्ष को भूल कर उसकी कला को चुनते हैं और वह हमको मेहनतकश की दृष्टि और  श्रम का एक कलारूप दिखाई देता है । व्यक्ति- रचनाकार के सन्दर्भ में हम इसको भूल जाते हैं कि समय की गति नदी जैसी नहीं होती । व्यक्ति अपने श्रम और मेधा से जिस समय को रचता है , उसकी सीमाएं होती हैं । कालिदास ने ही कहा है  कि " पुराना सब कुछ त्याज्य नहीं है और नया भी सब कुछ वन्दय नहीं है " । तुलसी ने स्वयम संग्रह -त्याग का नियम दिया है ----संग्रह त्याग न बिनु पहचाने । निस्संदेह, उनके यहाँ स्त्री और दलित समाज के बारे में जो कहा गया है , वह आज प्रासंगिक नहीं है । और वह सामंतवादी व्यवस्था भी जो वंशानुक्रम पर आधारित है । लेकिन सामंत वाद में भी वे एक आदर्शवादी विकल्प देते हैं , जिसके महात्मा गांधी सरीखे अति लोकप्रिय जन-नेता  कायल होते हैं । गांधी जी चूंकि तुलसी को पसंद  करते हैं इसलिए उनसे लोग अक्सर ऐसे ही प्रश्न किया करते थे । उन्होंने ऐसे प्रश्नों का उत्तर देते हुएएक जगह पर  लिखा है --"इस तरह प्रत्येक ग्रन्थ और प्रत्येक मनुष्य को दोषमय सिद्ध किया जा सकता है " । उन्होंने लिखा है कि ---" तुलसीदास जी ज्ञानपूर्वक स्त्री जाति के निंदक नहीं थे । ज्ञानपूर्वक तो वे स्त्री-जाति के पुजारी ही थे ।" यही बात शबरी और निषाद के उदाहरणों से उनके दलित विरोधी कथनों के बारे में कही जा सकती है । दरअसल , इतिहास और परम्परा को जानने का एक नजरिया होता है जिससे हम उसके सारतत्त्व को ग्रहण कर सकें । तुलसी का सारतत्त्व " लोकवादी " है , इसमें संदेह नहीं होना चाहिए , उनकी सीमा को स्वीकार करते हुए । अन्यथा स्त्री विरोध के नाम पर कबीर भी स्वीकार्य नहीं होंगे ।

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