Sunday, 6 October 2013

सच में सच्ची कविता वह है जो "पुकारती हुई चली जाए" ।मुक्तिबोध ने अपनी एक कविता में लिखा है -----"मुझे पुकारती हुई पुकार खो गयी कहीं ।" जब मूल्य संपन्न जीवन जीने की आकांक्षा , ललक और तदनुरूप आचरण होता है तो व्यक्ति-रचना , लोक- रचना की तरह आती है  । उसमें  प्रस्तुत के साथ जो अप्रस्तुत विधान आता  है और  जिन्दगी के जो अनूठे और जीवंत रूपक आते हैं ,वे अपनी जमीन से पौधों की तरह उगते हैं , उनकी अपनी जमीन , प्रकृति और जीवन प्रवाह होता  है । कविता वह है जो  बरबस हमको अपनी ओर खींचती है , जो हमारे दिल और दिमाग की वाणी बनती  है । अपनी धरती में रचा बसा लोक-मग्न ह्रदय ही ऐसी अभिव्यक्ति कर सकता है । जहां भाव और विचार की एक जीवन-सिक्त धारा सी   भीतर-भीतर प्रवाहित  होने लगती है और हमारा मन उसमें डूबने  और बदलने के लिए प्रेरित होने लगता है । बड़े कवि-व्यक्तित्त्व इस तरह की अभिव्यक्ति को जन्म देते हैं और यह कवि की विकास -यात्रा का प्रमाण होता है ।  

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