साहित्य में अपनी जिन्दगी तक सीमित रहने के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसकी सीमाएं होती हैं । इसीलिये वहाँ अनुभववाद की जो सीमाएं होती हैं , आए बिना नहीं रहती । निराला , प्रेम चंद अपने भोगे तक ही सीमित रहते , तो बड़ी रचना ----कालजयी -----शायद ही कर पाते । व्यक्ति में यह क्षमता है कि जैसे वह अपने ज्ञान का विस्तार कर लेता है वैसे ही वह अपना अनुभव और दृष्टि-विस्तार भी करता है ,जो उसके संवेदना जगत को दूर दूर तक फैला देते है । लिखता तो हर व्यक्ति ही अपने अनुभव की बात है , किन्तु वह वहीं तक सीमित होकर नहीं रह जाता । संकोच और विस्तार के वैरुद्धिक सामंजस्य की कला है साहित्य ।
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