यह दरअसल हमारे बुनियादी खेतिहर जीवन की समस्या है । पेड़ की जड़ें आज भी कृषि-प्रधान ग्रामीण जीवन में हैं , जहाँ आज सबसे ज्यादा गरीबी की मार है । उन्ही संस्कारों से जब कोई व्यक्ति पढ़-लिखकर या किसी अन्य धंधे के लिए नगर या महानगर में आता है तो बुनियाद में बसे संस्कारों को नहीं छोड़ पाता । एक जाति में पैदा होता है , उसी में ब्याहता है , उसी खोल में नौकरी प्राप्त करता है , बाल-बच्चे भी उसी माहौल में पैदा होते हैं , स्कूल-कालेज भी जाति को याद कराते हैं फिर आ जाती है राजनीति , ये भी उसी की याद दिलाती हैं , मीडिया के समीकरण और चिंताएं भी वही । फिर बदलाव आए कहाँ से । और कौन लाए । सब आसान रास्तों पर चलना चाहते हैं । कबीर ने खूब कहा कि ---जाति न पूछो साधू की ---पर कुछ हुआ । इस कान से सुना और उस कान से निकाल दिया । थोड़ी-बहुत सुरक्षा मिली तो जाति के घेरे में ही मिली । यह ऐसी हकीकत है जिससे कैसे निपटा जाए , यह सवाल हमेशा बना रहता है ?
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