Monday, 27 January 2014

राष्ट्रपति के गणतंत्र दिवस पर किये  गए औपचारक राजनीतिक  सम्बोधन में देश में सक्रिय सभी  राजनीतिक दलों की राजनीति पर  छींटे पड़े हैं ,जिसमें समझ लेने की दिशा में  दलगत संकेत और व्यंजनाएं भी हैं। इसमें कांग्रेस की राजनीति को भी छोड़ा  नहीं गया है।  मनमौजी अवसरवाद  और साम्प्रदायिकता वाली विखंडनकारी राजनीति के संकेत को भी आसानी से समझा जा सकता है।  जहां तक लोक-लुभावनता  का सवाल है वह लगभग पूरी राजनीति का गोरखधंधा बन चुका है।अराजकता और आंदोलन में फर्क कर लिया जाता तो शायद लोक-लुभावन अराजकता जैसा प्रत्यय ---ख़ास तौर  से सद्य-गठित अनुभव रिक्त आम आदमी  पार्टी संकेतों की चपेट में आने से बच जाती।  इस सम्बोधन में वामपंथी दलों की जनसंबद्ध राजनीति का नोटिस न लेना ---नव - उदारवादी अर्थ--नीतियों को इस प्रसंग में किसी भी रूप में जिम्मेदार  ठहराने से किनारा करना है।  

Saturday, 25 January 2014

सबके बच्चे पढ़ना-लिखना और मनुष्यता के पथ पर आगे बढ़ने की इच्छा रखते हैं।  यह अलग बात है कि निर्धन और असहाय वर्ग के बच्चों को यह सुविधा नहीं मिल पाती।  धनाढ्य  वर्ग तो अपने बच्चों को अमरीका-इंग्लेंड भेजकर भी  पढ़ा लेता है।सरकारी स्कूलों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है और वर्गीय शिक्षा -प्रणाली को स्वाधीनता के नाम पर फैला दिया जाता है।  समाज वर्गों में गुजर-बसर करता  है तो शिक्षा-चिकित्सा और धन अर्जित करने की प्रणालियां भी वर्गीय होती हैं।इसलिए भाषा--माध्यम भी दो तरह के बना दिए जाते हैं।  अंग्रेजी - माध्यम से पढ़ने वाला ऊंची नौकरियों पर कब्जा जमा लेता है और हिंदी माध्यम वाला निम्न--मध्यवर्गीय नौकरियों तक ही अपनी पहुँच बना पाता  है।  इसमें भी प्रतियोगिता आड़े आती है.।   
यह कहने में कोई हिचक नहीं कि मीडिया भी पक्षधर की भूमिका अदा करता है ,उसी वर्ग की पक्षधरता , जिसका वर्चस्व और पूंजी उसमें लगी होती है।  उसी के पक्ष में मतदाता के मन को तैयार करके अपने आधीन बना लेने की जुगत भिड़ाना है और कुछ नहीं।  मतदाता को यह भ्रम रहता है कि यह  बात बड़े तटस्थ ढंग से कही जा रही है।  जबकि होती है गण-विरोधी पूंजी परस्त ताकतो की तरफदारी। इस बात का मतलब क्या है कि यदि आज चुनाव हो जाय तो। यह तो वही बात हुई कि ----"सूत  ना कपास और कोरिया ते लठम्-लठा।"

Friday, 24 January 2014

जैसे सुभद्रा कुमारी चौहान ने झांसी की रानी को " खूब लड़ी मर्दानी " कहा था। प्रवाह के पाट की चौड़ाई और गहराई के आधार और आकार-प्रकार को देखकर पुरुष प्रधान समाज में प्रकृति-पदार्थों का लिंग निर्धारण किया जाता रहा।   यह भाषा के निर्माण पर पुरुष प्रभुत्व का परिणाम है।  आहार, वेश ,सभ्यता सभी पर  प्रभुत्व अपना असर छोड़ते  हैं।  बिम्ब-रूपक और अवधारणाएं भी ऐसे ही बना करती। प्रभुता -परिवर्तन होते ही ये सब बदलने भी लगते हैं। 

Wednesday, 22 January 2014

जब  घनघोर अन्धकार होता है तब  जुगनू और एक छोटा-सा दीपक भी प्रकश - स्तम्भ का काम करता  है।एक अदना-सा कवि बादशाहों के राज्यों पर अपनी कविता के प्रकाश से भारी पड़  जाता है।   
"आप " ने रोका है
घोड़े को ,
जो दिग्विजय के लिए
निकला है ,
कुछ लोग अब
कह रहे हैं 'आप" को भी तीसरा  घोड़ा
और पहले-दूसरे  घोड़े को घास।

घोड़े  घोड़े ही रहेंगे
घास रहेगी घास
जब तक यह घास है
तभी तक आस है
जब यह भी घोड़ा बन जायगी
तो घास  की शामत आ जायगी।
अपनी तरफ से काम को सोच-समझकर करने के बावजूद छिद्रान्वेषी लोग हर स्थिति में दोष ढूंढ लेते हैं।  जिनका काम ही हर-हमेश दूसरों के दोष ढूंढना होता है , कुछ करना नहीं होता ,उनको काम करते  हुए लोगों में छेद  मिल ही जाते हैं। सबसे मुश्किल होता है --मैदान में उतर कर काम करना। उसीसे सोच बनती  भी है और उसमें परिवर्तन भी होता है। जो काम में उतरता ही नहीं , वह क्या करके गलती करेगा।  काम करने के साथ ही गलती भी जुडी हुई है। 

Tuesday, 21 January 2014

संतोष की बात है कि केजरीवाल की सरकार का धरना खत्म हुआ किन्तु यह प्रसंग कई तरह के सवाल खड़े करते हुए चेतावनी भी दे गया है।  अपनी भाषा पर नियंत्रण , गहरी मानवीय सोच और व्यवहार तथा सरकार चलाकर दिखाना और सादगी,ईमानदारी तथा कर्तव्यपरायणता की मिसाल पेश करने से ही यह कारवाँ आगे जा सकता है , इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है।  अपने लोगों को अनुशासन और संगठन की डोर में बांधे रखना भी कम चुनौती नहीं है।  इसे भानुमती का कुनबा बनाने से भी बचना चाहिए और अंतर्राष्ट्रीय से लगाकर राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी बात रखनी चाहिए तथा जाति , मज़हब , क्षेत्र ,धन और बाहुबल से ऊपर उठकर एक नए तरह की राजनीति करने का जो सन्देश गया है  वही  दूर तक चलते रहना चाहिए।  यह नट की  तरह पतली डोर पर संतुलन साधकर चलते रहने का खेल है ,खाला का घर नहीं।  
ब्रज अंचल में  अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध में  एक नयी रियासत डीग की स्थापना हुई  , जो बाद में भरतपुर के नाम से जानी गयी।कुछ समय तक डीग उसकी राजधानी मुख्यालय का काम करती रही।   यह मुग़ल काल के लगातार होने वाले विघटन की स्थितियों में हुआ , जब स्थानीय ताकत केंद्रीय सत्ता के विरुद्ध खड़गहस्त हुई।  इसी में से तत्कालीन जाट  सत्ता का अभ्युदय  हुआ और इसके पहले शासक राव बदन सिंह ,सवाई जय सिंह ,जयपुर की अधीनस्थता में बने।  बाद में इसके दूसरे स्वाधीन  और सबसे प्रतापी शासक महाराजा सूरज मल रहे।  इनके समय में डीग के सुरम्य एवं बेहद कलात्मक --- उद्यान एवं जल-भवन निर्माण कराया गया।  ये कुराई कला के -प्रासादों के  रूप में बनाये गए। वास्तु कला की दृष्टि से बेजोड़ और ताजमहल की स्थापत्य  कला से होड़ बदते हुए। भादों के महीने में यहाँ ---लठावन का मेला लगता है ,जिसमें इन भवनों के बीच बने रंग-बिरंगे फव्वारे चलाये जाते हैं।  इससे इंद्र - धनुष जैसी प्राकृतिक सुषमा को निहारने और उसमें डूब जाने का अवसर मिलता है।कला , हमारी जिंदगी को नित्य नया बनाने का काम करती रहती है। 
१९ जनवरी रविवार को अलवर के सृजक संस्थान के मित्रों ने ---राजनीति का वर्त्तमान और आगे की सम्भावनाएं-----विषय पर एक विचार-गोष्ठी का आयोजन किया ,जिसमें मुख्य वक्ता दिल्ली वासी और 'सब लोग' (राजनीतिक मासिक ) तथा 'संवेद '(साहित्यिक मासिक) के सम्पादक श्री किशन कालजयी थे। उन्होंने कहा कि राजनीति आज अनेक लोगों के लिए बिना मेहनत के प्राप्त अकूत दौलत संचित करने का जरिया बन चुकी है ,सत्ता का दम्भ और नशा इससे अलग है । इस वजह से लोकतंत्र में  सत्ता के नए सामंत पैदा हो गए हैं। ,सत्ता की  दलाली करने वालों का तो जैसे जाल बिछ गया है ।इससे लोकतंत्र की गति में अवरोध पैदा हुआ है।  आम आदमी का यही गुस्सा है , जो बार बार फूट कर निकलता है । आम आदमी झूठा और सामंती किस्म का लोकतंत्र नहीं चाहता। उनका कहना था कि  आज के पूंजीपरस्त राजनीतिक दल पहले राजनीति में पूंजी का निवेश करते हैं और इसके बाद उसी से अपार सम्पदा और वैभव के  मालिक बन जाते हैं। यह कुचक्र चलता रहता है।  इसी से भ्रष्टाचार बढ़ता जाता है और वह आम आदमी की जान का लेवा बन जाता है।  आम आदमी का सबसे बड़ा कष्ट यही है।  इसी लिए जब उसे इससे निज़ात पाने की कोई  गली मिलती है तो वह बेझिझक  उस पर चल देता है।  दिल्ली के चुनावों में इसीलिये उसने नया रास्ता खोजा है।  यह अलग बात है कि इस नए  रास्ते में आगे की सम्भावनाएं ही नहीं ,  कितनी ही तरह के  अवरोध भी  हैं क्योंकि जिनके हाथ से सत्ता जायगी , वे आसानी से उसे अपने हाथ से नहीं जाने देंगे।  अतः , बहुत सम्भलकर चलने की जरूरत है। आचरण की सजगता के बिना आगे की सम्भावनाएं धूमिल होने का ख़तरा बना रहता है।  इसलिए  फूंक कर कदम बढ़ाने की जरूरत है। 

Monday, 13 January 2014

मकर संक्रांति का पर्व एक ग्रामीण और किसानी पर्व है --ठेठ देहाती ----, गिंदड़ी ,गिल्ली-डंडा ,सतोलिया से मन बहलाने, आमोद-प्रमोद का पर्व ।जयपुर में यह पतंगबाजी का त्यौहार है ।  ब्रज में इस पर्व पर कुश्ती-दंगल  होते रहे हैं।  दिन में चने का शाक खाने के लिए , चने के खेतों में झुण्ड के झुण्ड जाते  हैं/थे ।इसे तोता बनना  कहा जाता है।कहते हैं कि चलो,तोता बनने चलें ।    समय बदलने पर अब यह ठेठ और अंदर के गाँवों में  रह गया है।कल अलवर के भीतरी गांवों में जाना हुआ ,जहां इस पर्व की पूर्व-संध्या का नज़ारा देखने को  मिला --ख़ास और से ग्रामीण महिलाओं में  , जो अपनी ससुराल से पीहर जा  रही थी। रंग-बिरंगे परिधानों में सजी-धजी । मैं जिस बस में लौट रहा था, उसके आगे चल रहे ट्रक के पीछे लिखा हुआ था -----'मार हौरन , निकल फ़ौरन ।' क्या तुक भिड़ाई है। किसी ड्राइवर की सूझ-बूझ हो सकती है।  इस पर्व पर मित्रों को शुभकामनाएं।    

Saturday, 11 January 2014

क्षमा चाहता हूँ कि मैं दिन में एक बार सुबह  फेस बुक खोलता हूँ। और इसके लिए एक से डेढ़ घंटे का समय देता हूँ  ।  तकनीक का कमाल है कि समय , काम और दूरी को उसने कितना कम कर दिया है और लोकतांत्रिक तौर पर एक अभूतपूर्व मंच प्रदान कर दिया है।  इस मंच पर आए अपने सभी आदरणीय अग्रजों और बंधुओं का आभारी हूँ कि बहस को दूर तक ले गए। 
मेरा मानना अब भी यह है कि आम आदमी पार्टी का पूरा  रास्ता नहीं,पगडंडी है। जब सामने बीहड़ हो और उसे  पार करना हो और रास्ता होने के बावजूद वह किसी  वजह से आँखों में नहीं आ पा रहा हो ।  हो भी तो अंदर घुस कर बहुत दूर हो तो पगडंडी ही कुछ समय के लिए रास्ते का रूप ले लेती है।  जैसे जहां पेड़ नहीं होते,वहाँ एरण्ड का पौधा ही पेड़  कहलाता है। यह सच है कि  आम आदमी पार्टी अभी अपने पूरे फॉर्म में नहीं है। उसकी कोई स्पष्ट शक्ल भी नहीं है। फिलहाल वह स्टॉप गेप  अरेंजमेंट  की तरह लगती है है।इसीलिये दिल्ली की जनता ने ,चूंकि वहाँ वामपंथी उपस्थिति प्रभावी नहीं है , बेहद दुखी होकर और राजनीति से नफ़रत  करने की स्थिति तक ऊबकर, दोनों ही बड़े राजनीतिक दलों को आईना दिखाने  की असमंजस और दुविधाग्रस्त कोशिश की है और इतिहास ने राजनीतिक दिशाहीन और अनुभवहीन एक प्रबंधन समूह पर बहुत भारी बोझ डाल  दिया है यह भविष्य पर है कि वे इसे कितनी दूर तक और कैसे ढ़ो  सकेंगे ? एक बच्चे के सामने बूढ़ों जैसी आकांक्षाएं व्यक्त करना मुझे किसी भी दृष्टि से न न्यायपूर्ण लगता है न उचित ही।  मैं मानता हूँ कि वाम पंथियों के पास आम आदमी का महत्त्वपूर्ण  विजन है और उनकी संघर्ष का बेहद चमकदार इतिहास भी है।  मेरा यह भी मानना है कि रास्ता भी वही है किन्तु कई बार इतिहास सामान्य जन को बहुत बड़ी उलझन में लाकर फंसा देता है तब जो रास्ता दिखाई देता है ,उसी पर बात करने की जरूरत होती है।  तब छोटे आदर्श ही भाने लगते हैं।और हम  इसी रास्ते से वहाँ तक पंहुच सकते हैं जहां पंहुचना चाहते हैं।यह विकल्प नहीं एक छोटी-सी पगडंडी  जरूर है।    

Friday, 10 January 2014

जो लोग व्यवस्था- परिवर्तन के इंतज़ार में हैं और वर्त्तमान से सीख नहीं लेते , उसकी जरूरतों और जन की आकांक्षाओं का अंदाजा नहीं लगा पाते , वे अपने समय की नब्ज पकड़ने में विफल रहते हैं।  समय की नब्ज , जिसने पहचान ली वह नेतृत्वकारी भूमिका में आ जाता है। फिर उसकी टोपी के नकलची मैदान में उतरने लगते हैं।    भ्रष्टाचार, आम आदमी की जिंदगी को सबसे ज्यादा तबाह करता है और उससे उसकी नैतिकता को धीरे-धीरे छीनता  जाता है।वह  सादगी को छोड़कर  प्रदर्शन के सामंती आभामंडल का शिकार होता जाता है। इसीलिये जब सादगी और औसत नैतिकता की छोटी-सी लहर भी चलती है ,तो वह उसके मन को लुभाती है।  प्रतिरोध,संघर्ष और उसके साथ एक तात्कालिक विकल्प उसीके भीतर से नज़र आता है। अस्वस्थ व्यक्ति को  फौरी राहत की जरूरत होती है। वह व्यवस्था बदलने तक का इंतज़ार नहीं कर सकता। इसीलिये वह अपने भीतर के' नियतिवाद' को नहीं छोड़ पाता।  आम आदमी बहुत दूर की नहीं सोच पाता। वह तात्कालिकता से सर्वकालिकता की और बढ़ता है ,सर्वकालिकता से तात्कालिकता की उल्टी यात्रा नहीं करता।उसको राहत देने में नैतिकता सबसे ज्यादा मददगार होती है।   नैतिकता के सवाल से उसकी  संस्कृति जुडी रहती है।  दुनिया का इतिहास बतलाता है कि व्यक्ति और समाज ने अपनी तरह से अपने समय की नैतिकता के लिए भी बहुत बड़े युद्ध और आंदोलन किये हैं। ऐसे समय में वह रोटी और राजनीति के सवालों को भी भुला देता है।आज देश में जो राजनीतिक-नैतिक  हलचल है और जिसने संकीर्ण सोच और व्यवहार की ओछी राजनीति  पर अपना जो दाव  चल दिया है ,उसका भविष्य मानवता के लिए अच्छा ही होगा , ऐसा मानने में संकोच नहीं होना चाहिए।  अभी इस नैतिकता और सादगी की एक ही विचारधारा है ---स्वराज्य और सुराज्य।  विचारधारा और विश्व -दृष्टि का स्थान यहाँ  रिक्त है ,जिसकी पूर्ति  इसके सहयोगी कर सकते हैं ।   

Thursday, 9 January 2014

आज, कवि विजेंद्र अपने जीवन के अस्सीवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं।  उनके सद्य-प्रकाशित कविता संग्रह---बनते मिटते पाँव रेत में---से उनकी एक कविता ---धरती का अंतःकरण -- की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए उनको भावी स्वस्थ और गतिशील जीवन की शुभकामनाएं देता हूँ।
                                                                            जल ही उद्गम है जीवन का
                                                                             खिले शतदल का
                                                                             यह कविता का भी सच है
                                                                            जो लेता है नए नए रूप
                                                                            भूमिगत-----भू आकृतियों का सघन मूर्तिशिल्प
                                                                             कहाँ दिखाई देती है धरती के गर्भ में
                                                                             जल धाराएं आँखों को
                                                                             अनेक पुरानी  स्याह चट्टानों की बेजोड़ कटाने
                                                                              काल की छेनियों के वक्र निशान
                                                                              हथौड़े की उछटती  चोटें
                                                                              सुनाई पड़ती हैं
                                                                               टकराती सागर लहरों में
                                                                             चूने के पत्थर ,जिप्सम, चाक ,चट्टानी नमक
                                                                               घुला पानी
                                                                            कहाँ है इतनी घुलनशीलता जीवन में
                                                                               मन में, विचार में, सूझबूझ में
                                                                                 घुलनशीलता का जन्म होता है रसायन की
                                                                                 बूंदों
                                                                                  -------------
                                                                                 ------------------



                                                                                 भूमिगत स्थलाकृतियाँ
                                                                                  मेरे ह्रदय में प्रतिबिंबित
                                                                                   धरती का अंतःकरण  बताती हैं













   
आदर्श,सादगी और नैतिकता ही किसी सिद्धांत के पाँव हो सकते हैं।  सत्ता के भूखे लोग इन सबको भूल रहे थे या भूल चुके थे।   गांधी की कमाई खाने वाले भी। आम  आदमी पार्टी के कुछ सद्यानुभवी  युवा-प्रौढ़ों ने गांधी के पथ को अपनाकर , राजनीतिक फैसला किया ,जिसकी  घुटे राजनीतिक दलों और उनके  अंध-समर्थकों तथा जन-मिजाज को न भांप पाने वाले लोगों ने पहले तो  खिल्ली उड़ाई। अब वे   ही  कह रहे  हैं कि ----इस नयी ' बला'से सीखो। बहरहाल , इस तरह की नयी  शुरुआत जितनी दूर  तक चल सके ,  चलनी चाहिए ---"-इस  हिमालय से  कोई गंगा निकलनी चाहिए " (दुष्यंत कुमार )

Wednesday, 8 January 2014

लोकधर्मी काव्यपरम्परा के गम्भीर और प्रतिष्ठित कवि एवं  सौंदर्यचेता विजेंद्र जी आज अपने जीवन के उन्यासी वर्ष पूरे कर रहे हैं।  कल से उनका अस्सीवाँ लग जाएगा।  कविता को समग्रतः  समर्पित और अपनी प्रतिज्ञाओं -संकल्पों के प्रति अटूट एवं सुदृढ़ आस्था रखने वाला ऐसा कवि विरल होता  है। जीवन-प्रणाली और विचारधारा को अपनी जमीन  के भीतर से रचने की ललक और अपनी विराट परम्परा के सारतत्त्व को अपनी पूंजी बनाकर चलने  वाले  तथा वर्त्तमान और भविष्य को आँखों में संजोये रखने वाले विजेंद्र सबके चहेते नहीं हैं।  यह उनके चरित्र की दृढ़ता का सबूत है।  वे मध्यवर्ग की ताकत को जरूरी मानते हुए भी प्रेरक नहीं मानते । प्रेरणा का स्रोत उनके लिए कर्मण्य -जीवन की वही ताकत है , जो जीवन की बुनियाद में लगे पत्थर की तरह होती है। जिसकी सबसे ज्यादा उपेक्षा और अनदेखी होती है।  बहरहाल, विजेंद्र जी बड़े हो रहे हैं और लगातार  लिख-पढ़ और सोच रहे हैं , कर्मरत हैं। २०१३ में  जयपुर के वाङ्मय प्रकाशन से उनका नया कविता संग्रह आया है ----- ' बनते मिटते पाँव रेत  में'।  उनको बधाई, मुबारकबाद और जीवेम शरदः शतम की  शुभकामनाएं।  
 वही कवि -रचनाकार  टिकाऊ होगा  और जन-मानस  को दूर तक प्रभावित करने वाला भी ,  जो अपने  अंतरंग -बहिरंग का एका अपने जीवन और रचना दोनों से प्रमाणित कर सकेगा। कविता, पूंजी संकलन का कोई  व्यवसाय -क्षेत्र नहीं है ,जहां सफलता को ही सब कुछ मान लिया जाता  है । यह सार्थकता की नींव पर संरचित दुनिया है ,जिसमें नैतिकता और जन-संस्कृति के झरोखों से आने वाली  धूप -हवा  के बिना स्वास्थ्य बिगड़ने का ख़तरा हमेशा रहता है ।यह सच्चे योग-साधकों का एक ऐसा संसार है ,जिसमें शिथिल समाधि होते ही सब कुछ गड़बड़ा जाता है।   इसीलिये तो पूंजी- व्यवसायी इस दुनिया से दूर रहते हैं या फिर अपनी सरप्लस पूंजी से धर्मादे की तरह   कुछ इनाम-इकरार घोषित कर इसमें घुसने और अपनी साख बचाने का प्रयत्न किया करते हैं।आजकल सरप्लस पूजी के घुसपैठियों ने इसमें भी सेंध लगाना शुरू कर दिया है।  वे अनेक शक्लों में इसके अंतरंग में प्रवेश पा चुके हैं।  इसे  बाज़ारवाद  के रंग के रूप में भी देखा जा सकता है।  आत्म-विज्ञापन की आतुरता को  भी  भौंडी और बेहूदी व्यावसायिक विज्ञापन की ठगी और टटलूबाज़ी के समानांतर देखा  जा सकता  है।  

Tuesday, 7 January 2014

बेवजह किसी के अच्छे कार्यों की  तारीफ़ करने वाले लोग  आज की विशुद्ध बाजारू दुनिया में विरल  हैं।    चतुर-चालाक लोग आदिकाल से हैं और चापलूसी तथा  झूठी मुंह-देखी प्रशंसा ,किसी प्रयोजन को साधने के लिए करना लगभग हर व्यक्ति की आदत में होता है।   . तटस्थता और निर्वैयक्तिकता बड़ी जीवन-साधना से  आती है।  जिसे किसी भी अस्त्र से परास्त नहीं किया जा सकता, उसे उसकी झूठी -प्रशंसा का अस्त्र एक सेकिंड में परास्त कर देता  है।कवि लोग अपने आश्रयदाताओं की झूठी प्रशंसा करके इनाम ही नहीं , बड़ी-बड़ी जागीरें ले लेने की कोशिशें किया करते थे। अपनी प्रतिभा को इसी तरह आज का आदमी भी बेचता है।  पुरस्कार-सम्मानों की दुर्गति भी ऐसे लोग कर दिया करते हैं।     
हर व्यक्ति चाहे कवि न हो किन्तु उसका कवि-हृदय होना ही आधा-सा कवि होना है।  कविता, व्यक्ति के बहिरंग को उसके अंतरंग में खोजने की कला है। 

Monday, 6 January 2014

सीखि  लीन्हो रोध , प्रतिरोध, क्रोध , क्षोभ सब
सीखि  लीनी  गाँव ,खेती , किसान की बड़ाई है।
 सीखि लीनी सदी की बदी ,औ  फूलन सौं लदी  
 मंजूषा में जैसे सोने की प्रतिमा सजाई है।
जीवन कहत याकौ बानक  विचित्र    जामें
धरती पै आसमान की बैठक जमाई है। 
कविता करनौ हंसी-ठट्ठा ना है होरी कौ
ग्रीषम की खेती है, त्वचा-स्वेद की कमाई  है । 

Sunday, 5 January 2014

बहुत गर्मी में थोड़ी-सी छाया का आसरा मिलना भी सुखदायी होता है ।  किसी 'छाया'से इससे ज्यादा उम्मीद लगाना वास्तविकता की  अनदेखी करना है । यह किसी से छिपा नहीं है कि "आप" का अपना कोई ढांचा नहीं है। वह विशुद्ध  अवसरानुकूल पैदा हुई आकस्मिक परिस्थिति की देन  है ।उसका कोई सुचिंतित विधान नहीं है।  उसका भरोसा है वह आम आदमी ,जिसका मौजूदा राजनीति ने दम घोंट दिया है। जब कि उसके सामने राजनीति के मंजे हुए  धुरंदर खिलाड़ी हैं , जो दाव , लगने की फिराक में हैं।  जिनकी  नज़र मछली के शिकार पर बगुले की तरह रहती है। फिर भी , आशा करनी चाहिए कि राजनीति के  धौंसे  में  यह छोटी  -सी  धमक अपना रंग जरूर दिखायेगी।एक पत्थर उछलता है तो आकाश में कम्पन  होता ही है।        

Saturday, 4 January 2014

सत्ता के महल के प्रवेश द्वार पर 
सावधान रहना प्रहरी
यहाँ जो आता है
 राग - ध्वज के
रंगों की छाया में
अंगड़ाइयां लेता है
यहाँ खेत-कारखाने नहीं
बड़े- बड़े दुर्गों  से
सामना होता है
यह भूलभुलइयों का मैदान है
बच्चे पहले यहाँ
लुकाछिपी ,आंखमिचौनी और
किलकिलकांटिया का खेल, खेलते हैं
सावधान रहना प्रहरी
यहाँ शतरंज और चौसर की
चालें चली जाती हैं
यह खाला का घर नहीं
यहाँ पानी भी
बावड़ियों के
सबसे नीचे तल  में
ढूंढें से मिलता है
यहाँ एक ऐसा वृक्ष है
जिसके फल देखकर ही
लार टपकने लगती है
इसमें प्रवेश कर लेने पर
 छोटा घर अच्छा नहीं लगता
और न ही छोटी सवारी ,
नारद, भव , बिरंचि , सनकादि भी
यहाँ आकर अपना रास्ता भूल जाते हैं
सावधान रहना
अभी तुमने न कुछ देखा है
न जाना है
कि रास्ता क्या है ?
और उसकी पगडंडियां नहीं हैं
चलो ,बढ़ते चलो
धरती पर मजबूती से
अपने पांवों को टिकाते हुए
कि  छू  सको  आसमां के छोर,
ज़रा चूक हुई कि
नहीं रहोगे कहीं के भी ।  

Wednesday, 1 January 2014

शिष्टता पेड़ों पर
टंगी नहीं होती
न ही वह
दगडे में पडी मिलती है
बाज़ार में तो वह होती ही नहीं
मैंने उसे लगातार  काम करने वाले
गैर लफ्फाज़ आदमी में देखा
उसके पास इतना है
कि जब सघन अन्धेरा होता है
तो वही दिखलाता है रास्ता  ।