क्षमा चाहता हूँ कि मैं दिन में एक बार सुबह फेस बुक खोलता हूँ। और इसके लिए एक से डेढ़ घंटे का समय देता हूँ । तकनीक का कमाल है कि समय , काम और दूरी को उसने कितना कम कर दिया है और लोकतांत्रिक तौर पर एक अभूतपूर्व मंच प्रदान कर दिया है। इस मंच पर आए अपने सभी आदरणीय अग्रजों और बंधुओं का आभारी हूँ कि बहस को दूर तक ले गए।
मेरा मानना अब भी यह है कि आम आदमी पार्टी का पूरा रास्ता नहीं,पगडंडी है। जब सामने बीहड़ हो और उसे पार करना हो और रास्ता होने के बावजूद वह किसी वजह से आँखों में नहीं आ पा रहा हो । हो भी तो अंदर घुस कर बहुत दूर हो तो पगडंडी ही कुछ समय के लिए रास्ते का रूप ले लेती है। जैसे जहां पेड़ नहीं होते,वहाँ एरण्ड का पौधा ही पेड़ कहलाता है। यह सच है कि आम आदमी पार्टी अभी अपने पूरे फॉर्म में नहीं है। उसकी कोई स्पष्ट शक्ल भी नहीं है। फिलहाल वह स्टॉप गेप अरेंजमेंट की तरह लगती है है।इसीलिये दिल्ली की जनता ने ,चूंकि वहाँ वामपंथी उपस्थिति प्रभावी नहीं है , बेहद दुखी होकर और राजनीति से नफ़रत करने की स्थिति तक ऊबकर, दोनों ही बड़े राजनीतिक दलों को आईना दिखाने की असमंजस और दुविधाग्रस्त कोशिश की है और इतिहास ने राजनीतिक दिशाहीन और अनुभवहीन एक प्रबंधन समूह पर बहुत भारी बोझ डाल दिया है यह भविष्य पर है कि वे इसे कितनी दूर तक और कैसे ढ़ो सकेंगे ? एक बच्चे के सामने बूढ़ों जैसी आकांक्षाएं व्यक्त करना मुझे किसी भी दृष्टि से न न्यायपूर्ण लगता है न उचित ही। मैं मानता हूँ कि वाम पंथियों के पास आम आदमी का महत्त्वपूर्ण विजन है और उनकी संघर्ष का बेहद चमकदार इतिहास भी है। मेरा यह भी मानना है कि रास्ता भी वही है किन्तु कई बार इतिहास सामान्य जन को बहुत बड़ी उलझन में लाकर फंसा देता है तब जो रास्ता दिखाई देता है ,उसी पर बात करने की जरूरत होती है। तब छोटे आदर्श ही भाने लगते हैं।और हम इसी रास्ते से वहाँ तक पंहुच सकते हैं जहां पंहुचना चाहते हैं।यह विकल्प नहीं एक छोटी-सी पगडंडी जरूर है।
मेरा मानना अब भी यह है कि आम आदमी पार्टी का पूरा रास्ता नहीं,पगडंडी है। जब सामने बीहड़ हो और उसे पार करना हो और रास्ता होने के बावजूद वह किसी वजह से आँखों में नहीं आ पा रहा हो । हो भी तो अंदर घुस कर बहुत दूर हो तो पगडंडी ही कुछ समय के लिए रास्ते का रूप ले लेती है। जैसे जहां पेड़ नहीं होते,वहाँ एरण्ड का पौधा ही पेड़ कहलाता है। यह सच है कि आम आदमी पार्टी अभी अपने पूरे फॉर्म में नहीं है। उसकी कोई स्पष्ट शक्ल भी नहीं है। फिलहाल वह स्टॉप गेप अरेंजमेंट की तरह लगती है है।इसीलिये दिल्ली की जनता ने ,चूंकि वहाँ वामपंथी उपस्थिति प्रभावी नहीं है , बेहद दुखी होकर और राजनीति से नफ़रत करने की स्थिति तक ऊबकर, दोनों ही बड़े राजनीतिक दलों को आईना दिखाने की असमंजस और दुविधाग्रस्त कोशिश की है और इतिहास ने राजनीतिक दिशाहीन और अनुभवहीन एक प्रबंधन समूह पर बहुत भारी बोझ डाल दिया है यह भविष्य पर है कि वे इसे कितनी दूर तक और कैसे ढ़ो सकेंगे ? एक बच्चे के सामने बूढ़ों जैसी आकांक्षाएं व्यक्त करना मुझे किसी भी दृष्टि से न न्यायपूर्ण लगता है न उचित ही। मैं मानता हूँ कि वाम पंथियों के पास आम आदमी का महत्त्वपूर्ण विजन है और उनकी संघर्ष का बेहद चमकदार इतिहास भी है। मेरा यह भी मानना है कि रास्ता भी वही है किन्तु कई बार इतिहास सामान्य जन को बहुत बड़ी उलझन में लाकर फंसा देता है तब जो रास्ता दिखाई देता है ,उसी पर बात करने की जरूरत होती है। तब छोटे आदर्श ही भाने लगते हैं।और हम इसी रास्ते से वहाँ तक पंहुच सकते हैं जहां पंहुचना चाहते हैं।यह विकल्प नहीं एक छोटी-सी पगडंडी जरूर है।
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