आज, कवि विजेंद्र अपने जीवन के अस्सीवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। उनके सद्य-प्रकाशित कविता संग्रह---बनते मिटते पाँव रेत में---से उनकी एक कविता ---धरती का अंतःकरण -- की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए उनको भावी स्वस्थ और गतिशील जीवन की शुभकामनाएं देता हूँ।
जल ही उद्गम है जीवन का
खिले शतदल का
यह कविता का भी सच है
जो लेता है नए नए रूप
भूमिगत-----भू आकृतियों का सघन मूर्तिशिल्प
कहाँ दिखाई देती है धरती के गर्भ में
जल धाराएं आँखों को
अनेक पुरानी स्याह चट्टानों की बेजोड़ कटाने
काल की छेनियों के वक्र निशान
हथौड़े की उछटती चोटें
सुनाई पड़ती हैं
टकराती सागर लहरों में
चूने के पत्थर ,जिप्सम, चाक ,चट्टानी नमक
घुला पानी
कहाँ है इतनी घुलनशीलता जीवन में
मन में, विचार में, सूझबूझ में
घुलनशीलता का जन्म होता है रसायन की
बूंदों
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भूमिगत स्थलाकृतियाँ
मेरे ह्रदय में प्रतिबिंबित
धरती का अंतःकरण बताती हैं
जल ही उद्गम है जीवन का
खिले शतदल का
यह कविता का भी सच है
जो लेता है नए नए रूप
भूमिगत-----भू आकृतियों का सघन मूर्तिशिल्प
कहाँ दिखाई देती है धरती के गर्भ में
जल धाराएं आँखों को
अनेक पुरानी स्याह चट्टानों की बेजोड़ कटाने
काल की छेनियों के वक्र निशान
हथौड़े की उछटती चोटें
सुनाई पड़ती हैं
टकराती सागर लहरों में
चूने के पत्थर ,जिप्सम, चाक ,चट्टानी नमक
घुला पानी
कहाँ है इतनी घुलनशीलता जीवन में
मन में, विचार में, सूझबूझ में
घुलनशीलता का जन्म होता है रसायन की
बूंदों
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भूमिगत स्थलाकृतियाँ
मेरे ह्रदय में प्रतिबिंबित
धरती का अंतःकरण बताती हैं
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