Wednesday, 8 January 2014

लोकधर्मी काव्यपरम्परा के गम्भीर और प्रतिष्ठित कवि एवं  सौंदर्यचेता विजेंद्र जी आज अपने जीवन के उन्यासी वर्ष पूरे कर रहे हैं।  कल से उनका अस्सीवाँ लग जाएगा।  कविता को समग्रतः  समर्पित और अपनी प्रतिज्ञाओं -संकल्पों के प्रति अटूट एवं सुदृढ़ आस्था रखने वाला ऐसा कवि विरल होता  है। जीवन-प्रणाली और विचारधारा को अपनी जमीन  के भीतर से रचने की ललक और अपनी विराट परम्परा के सारतत्त्व को अपनी पूंजी बनाकर चलने  वाले  तथा वर्त्तमान और भविष्य को आँखों में संजोये रखने वाले विजेंद्र सबके चहेते नहीं हैं।  यह उनके चरित्र की दृढ़ता का सबूत है।  वे मध्यवर्ग की ताकत को जरूरी मानते हुए भी प्रेरक नहीं मानते । प्रेरणा का स्रोत उनके लिए कर्मण्य -जीवन की वही ताकत है , जो जीवन की बुनियाद में लगे पत्थर की तरह होती है। जिसकी सबसे ज्यादा उपेक्षा और अनदेखी होती है।  बहरहाल, विजेंद्र जी बड़े हो रहे हैं और लगातार  लिख-पढ़ और सोच रहे हैं , कर्मरत हैं। २०१३ में  जयपुर के वाङ्मय प्रकाशन से उनका नया कविता संग्रह आया है ----- ' बनते मिटते पाँव रेत  में'।  उनको बधाई, मुबारकबाद और जीवेम शरदः शतम की  शुभकामनाएं।  

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