तीसरा नेत्र

Thursday, 24 September 2015

मनुष्यता को बचाने वाले कम नहीं थे
कदम कदम डेरे बसेरे थे उनके
सड़कें थी गाडियां थी
आसमान को छूने वाली आतिशबाजियां थी
तरह तरह के घुड़सवार थे
बग्घियां थी राजसी ठाठ वाली
कितना कुछ था मनुष्यता को बचाने क़ो
एटम बम भी मनुष्यता के लिये ही था
कविताओं की एक दुनिया थी
जो मनुष्यता को बचाने के अलावा
दूसरा कोई काम ही नहीं करती थी
अनेक लोग थे जो
बेपढों को पढ़ाने का काम करते थे
पर्यावरण की चिन्ता में डूबे लोग
कुछ ज्यादा कर न पाने की वजह से
अवसादग्रस्त होने की स्थिति में थे
कुछ लोगों ने दुनिया की ज्यादातर दौलत को
अपने कब्जे में कर लिया था
वे भी यही अखबारों में लिखवाते थे
कि मनुष्यता को बचा रहे हैं।
तानाशाहियां और लोकतंत्र दोनों के पास ही
अपने अपने संविधान थे
दोनों का जोर शोर से यही कहना था
कि वे मनुष्यता की रक्षा के सिवा
और कोई काम नहीं कर रहे हैं
खुशी की बात है
कितना कितना किया जा रहा है
मनुष्यता को बचाने के लिये ।
Posted by जीवन सिंह at 02:40 1 comment:
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Sunday, 20 September 2015

ग्यान और क्रिया का संचालन
इच्छा से होता है
इसलिये राजनीतिज्ञ
सिर्फ
इच्छाओं के जंगल उगाते हैं ।
Posted by जीवन सिंह at 00:20 No comments:
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देश आजाद हुआ तब गांव में बीस कुओं से भी अधिक पीने के पानी और खेत सींचने के काम आते थे इस समय उनमें से पांच कुओं से अधिक चालू नहीं हैं ।यही हाल पोखर,तालाब और ताल तलैयों का है ।पानी जीवन का आधार होता है ।वह बदलता है तो उसके साथ बहुत कुछ बदल जाता है ।आधार बदलने से अधिरचना भी बदल जाती है ।
Posted by जीवन सिंह at 00:18 No comments:
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मुक्तिबोध की सिफ्त यह रही है कि हर सवाल की शुरूआत वे खुद से करते हैं जबकि दूसरे अधिकांश खुद को बचाकर ।आत्मबोध उनकी ऐसी शक्ति है जो उनके हर विचार को अनुभव की आंच में पकाकर सौ टंच खरा बना देती है ।जीवनानुभवों ने उनके रचना कर्म में वह निखार पैदा कर दिया है जो दूर से सूरज की तरह दमकता है।
Posted by जीवन सिंह at 00:16 No comments:
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हिन्दी दिवस पर आंसू बहाने के बजाय गम्भीर चिन्तन मनन और आत्मोन्नयन की ज्यादा जरूरत है।हिन्दी अब लडकपन से आगे सयानी होती हुई एक बेहद सरस और निखरती हुई भाषा है ।
Posted by जीवन सिंह at 00:14 No comments:
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हिन्दी की चाहे जो सीमा रही हो ,वह कभी शर्म की भाषा नहीं रही ,जिस भाषा को बोलने वालों ने उपनिवेशवाद के विरुद्ध १८५७ का संग्राम लडा हो .वह गर्व करने की भाषा नहीं होगी तो और क्या होगी ।
Posted by जीवन सिंह at 00:11 No comments:
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जो लोग समझते हैं कि केवल साहित्य रचना से हिन्दी भाषा ज्ञान समृद्ध हो जायगी वे बहुत भारी मुगालते में हैं ।कोई भी भाषा सम्पूर्ण जीवन व्यवहार को जब तक ज्ञान के दायरे में नहीं लाती तब तक वह अपंग रहती है।हिन्दी के लगभग सभी जीवन क्षेत्र अभी तक अपने ज्ञानात्मक व्यवहार के लिए अंग्रेजी पर निर्भर हैं,इसलिये वह एक टांग पर घिसट रही है ।इस स्थिति को जब तक खत्म नहीं किया जायगा ,उसकी विकलांगता समाप्त नहीं होगी ।हिन्दी क्षेत्र के विश्वविद्यालय यदि ईमानदारी से कमर कस लें तो दस साल में आसानी से इस काम को कर सकते हैं।
Posted by जीवन सिंह at 00:10 No comments:
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अंग्रेजी में गौरव का अनुभव और उसका सतत बखान करने वाला समाज जब हिन्दी की बात करता है तो हंसी आए बिना नहीं रहती ।
Posted by जीवन सिंह at 00:09 No comments:
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हिन्दी दिवस के नाम से चालू हुए कर्मकाण्ड से अब जितनी जल्दी मुक्ति मिल जाय उतना ही हिन्दी का भला है ।इससे ऊर्जा,समय और धन तीनों की बचत होगी और हिन्दी दिवस के नाम से होने वाले पाखण्ड से भी मुक्ति मिलेगी ।हिन्दी को ज्ञान समृद्ध बनाकर ही उसे विश्वभाषाओं में स्थान दिलाया जा सकता है।
Posted by जीवन सिंह at 00:08 No comments:
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कोई भी भाषा अपने आधार भाषाई समूह की रागात्मक एवं तार्किक इच्छा शक्ति से विकसित व
प्रतिष्ठित होती है ।
Posted by जीवन सिंह at 00:05 No comments:
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जीना वही सिखा सकता है जिसने खुद पहले अच्छी तरह से जीना सीख लिया हो ।
Posted by जीवन सिंह at 00:03 No comments:
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देश में
स्कूल ,कालेज
और बडे आकार वाले
अनेक विश्वविद्यालय हैं
लेकिन शिक्षा नहीं है ।
Posted by जीवन सिंह at 00:02 No comments:
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तानाशाह
तभी पैदा होता है
जब लोगों में
तानाशाही की चाहत
पैदा कर दी जाती है ।
Posted by जीवन सिंह at 00:01 No comments:
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Saturday, 19 September 2015

मुक्तिबोध को इस संसार से गये आज इक्यावन साल हो गये ।लगता है अंधेरे में कविता इन्हीं दिनों लिखी गई है ।समय की इतनी मजबूत पकड वाला शायद ही कोई दूसरा हो ।
Posted by जीवन सिंह at 23:58 No comments:
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पहले जब गांव आता था
अपने खेतों ,स्कूल और पुनाहना मेवात की ओर जाने वाली सडक के एक किनारे पर पोखर .,
पोखर किनारे पीपल नीम के छोटे बडे बजुर्ग दरख्त देखता था
लगता था वे मुझसे पूछ रहे हैं
कि बहुत दिनों में आए हो
उस जगह को भूल गए
जहां गाय के खूंटे के पास
तुम्हारा नाल गढा है
इसी गाय के खूंटे पर
तुम्हारी लटूरियों को उतारा गया था
अब अलवर जाकर बडी बडी बातें करते हो
समाज परिवर्तन की
क्रान्ति की
साहित्य के सौन्दर्य विधान की
दुनिया को बदलने की
यही तो करता है
हर कोई
पर सब कुछ भूलकर
जब अपना पेट भर लेता है
उपदेश के तरु से फूल झडते हैं
जब अपनी एक कोठी बंगला
किसी शहर में बन जाता है
कहते हैं कि ईमानदारी और गरीबी में
एक रिश्ता होता है
जैसे होता है अमीरी और बेईमानी में
अमीरी अपना गांव जनपद देश
सब भूल जाती है
यह गरीबी और खेती ही है
जो अपना गांव देश जनपद
न भूल पाती है न छोड पाती है
हमको मालूम हुआ है
तुम वहां जाकर अपनी ब्रज मेवाती को
भूल गये हो बच्चों को अंगरेजी निष्णात
बनाकर फख्र करते हो
हमको भी ललचाते हो
हम भी तुम्हारे पिछलग्गू हो गये हैं
हमको भी हवा लग चुकी है तुम्हारी
अब हमारे दिन भी ज्यादा नहीं हैं
अबकी बार जब गांव आओगे
हमको यहां नहीं पाओगे
बाजार पोखर की तरफ बढ रहा है
उसके हाथ लम्बे हैं
राक्षस भी उसके सामने कुछ नहीं
उसके दांत दैत्यों से बडे हैं
उसकी गिरफ्त से कौन बचा है
सचमुच इस बार जब गांव आया हूं
तो पोखर के वे पेड कहीं नजर नहीं आते
अब वहां
दुकानों की नींव खुद रही है ।
Posted by जीवन सिंह at 23:55 No comments:
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किसी देश में राष्टृतीयता का भाव कितना सुदृढ है इस बात का पता इस बात से चलता है कि उस देश के नागरिक अपनी भाषाओं से कितना प्यार करते हैं ।
Posted by जीवन सिंह at 23:51 No comments:
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धर्म का गोरखधंधा अभी तक इसलिये मौजूद है क्योंकि राजनीति अभी तक उसका विकल्प नहीं बन सकी है ।
Posted by जीवन सिंह at 23:49 No comments:
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प्रकृति ने जीवन को संघर्षमय बनाया है और मनुष्य ने उसे अपनी दिमागी अच्छाई और कुटिलता से और अधिक संघर्षमय बना दिया है ।इससे स्थितियां अदलती बदलती रहती हैं ।किसी की बन जाती है तो किसी की बनी हुई बिगड जाती है ।ऐसी स्थिति में एक दृष्टान्त के रूप में मेरा स्मृतिशेष अनुज अक्सर इस मेवाती दोहे को कहता था #
समय बिगडगौ सरप कौ/बिगडी कौ का मोल।
मणिधारी की पीठ पे /दादर करां किलोल ।#
इसके पीछे एक बात भी कहता था कि घास खोदने वाली दो औरत एक नदी के किनारे से गुजर रही थी ।वे यह देखकर अचम्भे में पड गई कि बहते हूए सर्प की पीठ पर एक मेंढक बैठा हुआ उसीके साथ बह रहा था ।इस स्थिति को देखकर मेवाती लोक कवि ने यह दोहा कहा ।
Posted by जीवन सिंह at 23:48 No comments:
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मेवात में
मेरा गांव
टटलूबाजी के लिये
सबसे ज्यादा बदनाम है
लेकिन इस सत्य को
कौन जानता है
कि इसमें गति तब से आई
जब दिल्ली में
धन नीति को
उदारता के वेश में
सजाया गया
टटलूबाजी में
पीतल की ईंट को
सोने की बना देने की कला
स्वर्ण मृग से प्रभावित
पता नहीं कितनी रही होगी
किन्तु यह सच है
कि गांव में इसमें तेजी तब आई
जब दिल्ली में
कामनवेल्थ खेल घोटाला सामने आया
और जब
कोयला घोटाले से ऊंचे लोग
मालामाल हुए
पीतल से बनी सोने की ईंट का
कारोबार एक दिन में नहीं चला
यह वैसे वैसे फलाफूला
जैसे जैसे नौकरशाही और नेतागीरी ने
जयपुर भोपाल लखनऊ पटने में
पीतल को सोने में बदला
पटवारी ने पटवार हल्के में
थानेदार ने थाना क्षेत्र में
जो जहां है अधिकारी है
कारोबारी है
पीतल को सोने में बदल रहा है
सब जगह
यही जादू चल रहा है
ऐसे ही कारोबारी रिश्तों से
आजकल शहर और गांव के बीच का
नया वृक्ष फल रहा है।
Posted by जीवन सिंह at 23:42 No comments:
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गांव में रहते हुए आज तेरहवां दिन है ।भाइयों का एक दिन और रुक जाने का आग्रह है।कष्ट तो है लेकिन सोचता हूं कि इनको तो पूरा जीवन ही इन कष्टों में गुजारना है।ये इसके अभ्यस्त हो चुके हैं ।भीषण गर्मी और बिजली की आंखमिचौनी ,यही बहुत भारी कष्ट है ।आमदनी की कमी होने से महंगे
शहरी जीवन जैसी सुविधाओं से महरूम ।वर्गीय जीवन का खुला परिदृश्य। जीवन तो जीवन है ।वह चाहे जहां हो।इसलिये आज यहां और ठहर जाने का निर्णय करके सुबह अपने खेतों की तरफ निकल गया ।बटवारा होते होते हम सात भाइयों के बीच में सात सात बीघे खेत हिस्से में आये हैं ।यदि पेंशन नहीं होती .खेती पर ही पूरी तरह निर्भर होता तो भूखों मरने की नौबत आ जाती इसलिये सोचता हूं कि जो परिवार आज केवल खेती पर निर्भर हैं उनकी कैसी हालत होगी।
इस समय खरीफ की फसल खेतों में खडी है वर्षा का इन्तजार करती हुई ।झील के खेतों में पानी की सरसाई रहने की वजह से पूठ के खेतों से अच्छी फसल है ।ज्वार के पौधे आठ आठ फीट ऊंचे होंगे ।बाजरा ठसक के साथ पकाव के इन्तजार में है।बगल में ही जहां पानी का ठहराव अधिक है धान बोया हुआ है लेकिन अभी बाल जहां तहां ही निकली हैं।हरा कचन्द है।सहज प्राकृतिक मनमोहक हरीतिमा।पास में डीजल का पम्प चल रहा है ।धान की भराई हो रही है।एक मेव किसान ने अधबटाई पर एक महाजन के खेत ले रखे हैं।यहीं एक कच्चा घर बनाया हुआ है ।बगल में गाय और भैंस बंधी है।सूरज आसमान में ऊपर चढ आया है जिसकी किरणें स्कूल भवन के बगल में कभी चिमन बाग के नाम से जाने वाले खेतों पर पड रही है।यह बागों का जमाना नहीं ।यह चिमन बाग कभी अपने बेरों के लिये मशहूर था ।अब इसकी वह रौनक नहीं।इससे थोडी सी दूरी पर दीवान जी का बाग था।अब वह बाग भी गायब है।इसके खेतों में एक साथ बीस दुकान बन गयी हैं ।यहीं बगल में गोपाल कुंड है।जिसे लगभग दो सौ साल पहले गांव सेठ लालाओं ने बनवाया था ।यह शताब्दी से अधिक समय तक गांव की अधिकांश आबादी का स्नान ध्यान केन्द्र बना रहा ।इसके उत्तरी और दक्षिणी घाटों पर दोनों तरफ बडे बडे भवन बनाकर उन पर कलात्मक और दीर्घाकार चित्रांकित छतरियां बनाई गयी हैं।पश्चिमी घाट पर गोपाल मन्दिर बना हुआ है ।इस मन्दिर में बचपन में हमने सावन के महीने में गोपाल राधा को खूब हिंडोले झुलाया है।पूरब दिशा खाली और खुली हुई है।इस दिशा में एक बाग लगाया गया था जिसमें खिरनी ,जामुन,मौलश्री के पेडों के नीचे बचपन में अपने सहपाठियों के साथ हम खूब खेलते थे।आज भी जब पुराने सहपाठी मिलते हैं तो उन दिनों की याद करना नहीं भूलते ।जब वर्तमान ज्यादा तनाव भरा होता है तो अतीत सम्मोहनकारी लगने लगता है।असल बात सम्बन्धों की है।इससे पूर्व के सामन्ती रिश्तों में भी आज जैसा अलगाव और अजनबीपन नहीं था ,इसलिये लोग उन दिनों को याद करने लगते हैं ।
Posted by जीवन सिंह at 05:00 No comments:
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मुझे क्यों लगता है
कि जिसे जहां और जैसे होना चाहिये था
वैसा नहीं है
जहां होनी चाहिये थी सडक
वहां सभी रास्ते बन्द हैं
पानी की जगह संसद है
जिसमें सब कुछ होता है
सिर्फ वह नहीं होता
जो होना चाहिये था
संसद की जगह पर पानी है
जहां मछलियां प्यासी मरती हैं
कैसे सोचकर कहां पहुंचा जाय
यह शायद किसी को पता नहीं
हमको ऐसी आदत पड चुकी है
कि जब आग लग जाती है
तब कुआ खोदते हैं
जो कविता में गांव जनपद का महिमा गायन करते हैं वे एक रात वहां बिताना नहीं चाहते
हमने आम खाने की जगह पर
सारा समय पेडों की गिनती करने में बिताया
हमने कविता रचने की बजाय
लिखने का काम अधिक किया
जिसने रचा वह आज भी हृदय पर अंकित है
उसके गीत खूब गाए
पर सीखा कुछ भी नहीं
हमने विडम्बना विसंगति प्रतिरोध की
कितनी यशगाथा लिखी
पर सच के नजदीक नहीं पंहुच पाए
हमने चेले बनाए
पर कबीर की तरह
गुरु की पहचान न कर सके
शत्रु ने संस्कृति के आंगन में मजबूती से
अपने पैर जमाए
जहर के वृक्ष लगाए
अब उसमें फल लग गए हैं ।

Posted by जीवन सिंह at 04:53 No comments:
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Friday, 18 September 2015

मिथकों में जीने वाला समाज ऐसी बेडियों में जकडा रहता है जो उसने स्वयं अपने हाथों से
खुश होकर लगाई हैं ।इतना ही नहीं वह उनके लिये इन्सानों की हत्या करने तक को अपना धर्म मानकर अंजाम देते हुए गौरव का अनुभव करता है।
Posted by जीवन सिंह at 23:40 No comments:
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18 सितम्बर  2015 जुरहरा से डीग , अलवर यात्रा में 

अपने गांव जुरहरा से अलवर आ रहा हूं।सुबह अखबार वाली गाडी डीग तक आती है। डीग से अलवर के लिये पैसेन्जर रेल मिलती है।डीग में सुबह के आठ बज गये हैं ।रेल का इंतजार है ।सामने रेल आती दिखाई दे रही है।यह ब्रज का इलाका है।इन दिनों डीग में लठावन का मेला चल रहा है।डीग भरतपुर रियासत के अठारहवीं सदी के एक प्रतापी राजा जवाहर सिंह के नाम पर इस मेले का नाम जवाहर प्रदर्शनी रखा गया है । डीग के विश्व प्रसिद्ध महल भवन कहलाते हैं।इनमें गोपाल भवन सबसे अनूठा है।लाल पत्थर पर कुराई का बहुत बारीक कलात्मक काम कराया गया है।आगरा में बने ताजमहल के बाद इनका निर्माण हुआ था।सौन्दर्य संरचना में ये ताज से बहुत पीछे नहीं हैं।इस मौके पर इन महलों में रंग बिरंगे मनमोहक फव्वारों की छटा देखते बनती है।डीग में एक जमीनी दुर्ग उस समय बनाया गया था.जब डीग भरतपुर के पहले राजा बदन सिंह ने डीग को अपनी रियासत की राजधानी बनाया था ।भरतपुर को इसके बाद बसाया गया ।वहां सूरजमल ने एक ऐसा दुर्ग बनवाया जिसे अंगरेज जरनल लेक भी जीतने में कामयाब नहीं हो सका।इस घटना के बाद इस किले को लोहागढ कहा जाने लगा।
रेल में कुछ यात्री नासिक कुम्भ से होकर आये हैं।काया माया की ऐसे चर्चा कर रहे हैं जैसे जीवन का सारा रहस्य इनको मालूम हो चुका है।यही वह सामान्य लोक है जो आज भी मिथकों की दुनिया में जीता है और प्रत्यक्ष दुनिया से अधिक बडा सच मिथकीय संसार को मानता है।अभी अभी डिब्बे में एक जोगी वेषधारी व्यक्ति अपने ऊपर देवी के आने का नाटक कर रहा है और लोग हैं कि उसे सच मान रहे हैं ।मेरे बगल में बैठा एक यात्री सहयात्रियों को बतला रहा है कि साब चमत्कार तो होता है।जब मैने इसका प्रतिवाद किया तो कहने लगा कि आप मानें या न मानें साब हम तो मानते हैं ।संकट यह है कि डिब्बे में मानने वालों की तादाद ज्यादा थी।ऐसा ही है आज का लोकमानस .जिसकी वजह से ,देश में सही और सच्ची सेक्युलर राजनीतिक संस्कृति नहीं पनप पाती।ऐसा लोकमानस ही साम्प्रदायिक राजनीति के लिये एक मजबूत आधार मुहैया कराता है।
लगभग एक माह की भादों की कडकडी और चिलचिली धूप पडने के बाद आज आसमान में उतरती बरसात के मेघ घिर आए हैं।कामना यही है कि बरस पडें और किसान जन का संकट हरण करें ।उसका इस दुनिया में कोई नहीं ।यही वजह है कि वह आज भी आदमी की दुनिया से ज्यादा भरोसा मिथकीय दुनिया पर करता है।वह प्रकृति को ज्यादा नहीं जानता ।उसे अप्राकृतिक शक्तियों पर ज्यादा भरोसा है। इसीलिये आज भी वह वर्षा के लिये यज्ञ करता है,चामुण्डा का जागरण करता है।ज्योतिषियों से पूछता है कि पंडित जी बरसात कब होगी। उसे मौसम विज्ञान पर उतना भरोसा नहीं जितना अपने आसपास के पारम्परिक फलित ज्योतिषियों पर है।बहरहाल,गाडी हर स्टेशन पर ठहर रही है।अलवर में अपने कामकाज करने के लिये नगर ,गोविन्दगढ ,रामगढ स्टेशनों से सवारियां उतरी चढी हैं।कोई आ रहा है तो कोई जा रहा है ।यही क्रम है संसार का।डीग से जब यह गाडी चली थी तो यहां के प्रसिद्ध बेरों के बागों के बीच से होकर गुजरी थी।डीग के बेरों की तरह अलवर में रामगढ और तिजारा के बागू बेर मशहूर हैं। माघ फागुन के आसपास इनकी बहार रहती है।डीग से अलवर की तरफ अगला स्टेशन आता है बेढम।यहां के एक अलगोजा वादक थे जवाहर सिंह बेढम ,दो दोअलगोजे एक साथ बहुत सुरीले अन्दाज में झूम झूमकर बजाते।ब्रज के रसिया बजाते तो लोटपोट कर देते।दो साल पहले ही उनका देहावसान हुआ ।रेल जब जब बेढम से गुजरती है उनकी याद आए बिना नहीं रहती।ग्वारिया थे,बालपन और जवानी में गाय चराईं,तभी अलगोजा वादन की कला सीख ली,जैसे अलवर के मशहूर भपंग वादक जहूर खां ने भपंग वादन की कला बीडी बेचते हुए सीखी।कला का निराला संसार ही है जो जिन्दगी को अलग तरीके से संवारता है।
गाडी अपनी गति से चल रही है।आसमान में मेघ अपनी गति से।मौसम में नमी आती जा रही है।यद्यपि खेतों में खडा बाजरा वर्षा के अभाव में सूख रहा है।बाजरे की बालों पर अजीब तरह की उदासी पसरी हुई है जो किसान के चेहरे की लकीरों में दिखाई देती है।खेतों में दूसरी बडी फसल कपास की है।इस समय उसमें डोडी खिल रही है। तुलसी ने साधु चरित्र को कपास के समान कहा है साधु चरित सुभ चरित कपासू।निरस बिसद गुनमय फल जासू।यह शुभ चरित्र खेतों में दूर दूर तक पसरा हुआ है।रेल मार्ग के दोनों तरफ बबूल के पेडों की भरमार है जिनमें इस समय पीले फूलों की पंचायत सी हो रही है।ऊंटवाल स्टेशन निकल चुका है।अलवर आने वाला है।अलवर उतरने वाले यात्री अपना सामान संभाल रहे हैं।जयपुर की ओर यात्रा करने वाले निष्फिक्र बैठे हुए हैं।हमने भी उतरने की तैयारी कर ली है ।दरवाजे पर आकर प्लेटफार्म आने का इंतजार कर रहा हूं।अन्यथा अलवर से चढने वाले यात्री नीचे उतरने नहीं देंगे।



  • Ajay Varma डीग के महल
    Ajay Varma की फ़ोटो.

  • Ajay Varma डीग का क़िला
    Ajay Varma की फ़ोटो.



  • Posted by जीवन सिंह at 23:27 No comments:
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    प्रशंसास्त्र से ज्यादा खतरनाक परमाणु बम भी नहीं होता।परमाणु बम शरीरों का अन्त करता है जबकि प्रशंसास्त्र आत्मा का ।
    Posted by जीवन सिंह at 23:13 No comments:
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    प्रकृति ने जीवन को संघर्षमय बनाया है और मनुष्य ने उसे अपनी दिमागी अच्छाई और कुटिलता से और अधिक संघर्षमय बना दिया है ।इससे स्थितियां अदलती बदलती रहती हैं ।किसी की बन जाती है तो किसी की बनी हुई बिगड जाती है ।ऐसी स्थिति में एक दृष्टान्त के रूप में मेरा स्मृतिशेष अनुज अक्सर इस मेवाती दोहे को कहता था #
    समय बिगडगौ सरप कौ/बिगडी कौ का मोल।
    मणिधारी की पीठ पे /दादर करां किलोल ।#
    इसके पीछे एक बात भी कहता था कि घास खोदने वाली दो औरत एक नदी के किनारे से गुजर रही थी ।वे यह देखकर अचम्भे में पड गई कि बहते हूए सर्प की पीठ पर एक मेंढक बैठा हुआ उसीके साथ बह रहा था ।इस स्थिति को देखकर मेवाती लोक कवि ने यह दोहा कहा ।
    Posted by जीवन सिंह at 23:09 No comments:
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    सम्भव हो तो साहित्यकारों को अपने स्तर पर ,छोटे स्तर के ही सही, हिन्दी विश्व सम्मेलन आयोजित करने चाहिये ।सत्ता के हिन्दी सम्मेलन तो पक्षपाती ,भेद राजनीति वर्धक और अहम्मन्यता से भरे ही होंगे ।
    Posted by जीवन सिंह at 23:04 No comments:
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    Tuesday, 11 August 2015

    समय का बाज़ ------
    चिड़ियों में खलबली है
    कि समय का बाज़
    मुंडेर पर आ बैठा है
    उसके पंजों में खून लगा है
    नाखूनों में सड़े मांस की दुर्गन्ध
    चिड़ियों में बेचैनी है
    कि कबूतर मार दिए जायेंगे
    तोते उड़ा दिए जायेंगे
    मैना की गर्दन मसक दी जायगी
    गौरैया गीत गाना भूल जायगी
    जंगल को उजाड़ वीरान कर दिया जायगा
    बगीचों में मनाही कर दी जायगी
    कि अब कोई दूसरा फूल नहीं खिल सकता
    एक फूल एक रंग एक देश का सिद्धांत
    जो नहीं मानेगा
    राष्ट्रद्रोही कहलायगा
    समय का बाज़ मुंडेर पर आ बैठा है
    पहले जब चिड़ियों का राज था
    वे मदहोश थी
    सत्ता के रथ में बैठी
    रसपान करती थी
    अपने ही रक्त का
    अपने भतीजे भाई थे
    अपना परिवार था
    राजनीति की दूकान में
    अपना ही कारोबार था
    जातियों के गणित लगाए जाते थे
    सम्प्रदायों के सतूने
    बिठाकर शतरंज की बाज़ी
    जीत ली जाती थी
    रथ आता तो घोड़ा पकड लिया जाता था
    पर ऐसा कब तक हो सकता है
    जब जमीन देने लगती है जबाव
    आसमान भी अपना नहीं रहता
    अर्थनीति आती थी विश्व बेंक से
    अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष
    चिड़ियों का चुग्गा बनाता था
    कुछ पिछलग्गू थे
    जिनकी अपनी जमीन नहीं थी
    बेखबर थे कि
    बाज़ लगातार रणसंधि करने में लगा है
    उसने कबूतरों के लिए पाठशालाएं खोली हैं
    गाँव ---ढाणी से लगाकर
    शहर --महानगर के हर मोहल्ले तक
    जाल बिछ गया है
    संगठनों का तराऊपर
    घर घर में
    मंदिर निर्माण की खुली चर्चा
    तोते करते हैं
    पेड़ों के नीचे सुबह सुबह
    चिड़ियों को चुग्गा डाला जाता है
    दिमाग की सिल पर ऐसी भंग पीसी जाती है
    कि पीने वाला सुधबुध खो बैठता है
    सब कुछ मालूम था कि
    व्यापारी किसी का सगा नहीं होता
    उसे जो चुग्गा डालता है उसका हो जाता है
    उसे आपकी सूरत और सीरत से कुछ लेना देना नहीं
    वह व्यापारी है पूंजी का दलाल है
    उसके लिए सब कुछ जायज है , हलाल है
    आपका इतिहास जो हो
    उसे आप खुद भूल चुके हैं
    वह अब न तुम्हारे काम का है
    न तुम्हारे अनुचरों का
    जहां सोच--विचार पर ताला जड दिया गया है
    पेड़ों को ठूंठों में बदल दिया गया है
    वहाँ गिद्धों को आमन्त्रण आपने दिया है
    जहां गिद्ध आने लगते हैं
    वहाँ आता है ---समय का बाज़ भी |

    Posted by जीवन सिंह at 00:05 No comments:
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    Sunday, 9 August 2015

    १० अगस्त २०१५

    बहुत से लोग आलोचक बनने से शायद इसलिए डरते हैं कि कोई भी रास्ते चलता उनके ऊपर अपनी उपेक्षा करने का आरोप लगा देगा |रचना संसार में जितने आरोप आलोचक पर लगे हैं क्या किसी अन्य पर लगे हैं ?
    Posted by जीवन सिंह at 22:41 No comments:
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    Friday, 7 August 2015

    प्रतिशोध में भी जरूर थोडा बहुत प्रतियोगिता का भाव होता होगा ?अस्वस्थ भाव प्रतिशोध की ओर चला जाता है और स्वस्थ भाव प्रतियोगिता की ओर |
    Posted by जीवन सिंह at 05:45 No comments:
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    लाखों अग्म्भीरों से एक गंभीर ज्यादा श्रेयस्कर होता है क्योंकि वह बात को उदात्तता और ऊंचाई की ओर ले जाने में सहायक होता है |
    Posted by जीवन सिंह at 05:36 No comments:
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    अंगरेजी चाहे भारत की भाषा न हो किन्तु शासक---भारतीयों और बिचौलियों की भाषा तो है जिसका लोग आसानी से अनुकरण करने लगते हैं |यथा राजा तथा प्रजा कहावत यों ही तो नहीं बनी |
    Posted by जीवन सिंह at 05:33 No comments:
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    मन की बात में भी जब राजनीति हो , मन की बात नहीं रह जाती |
    Posted by जीवन सिंह at 05:31 No comments:
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    नीचे गिरना ही आसान होता है ऊपर जाने के लिए बहुत ऊर्जा और अभ्यास की जरूरत होती है |इसीलिये राजनीति में गिरना क्रिया का महत्त्व सबसे ज्यादा होता है |
    Posted by जीवन सिंह at 05:22 No comments:
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    उत्कृष्टता के लिए हमेशा पापड़ बेलने पड़े हैं |तभी तपस्या और साधना जैसे शब्द मानवीय कोश में आये हैं |तप अधार सब सृष्टि भवानी |लेकिन राजनीति एक ऐसा गोरखधंधा बना दिया गया है जिसमें बहुत आसानी से चापलूसी के बल पर बहुत कुछ हासिल हो जाता है |या फिर प्रोपर्टी डीलिंग में ---यानी दलाली में ,पौबारह हैं |आजकल कदाचित इसीलिये हर धंधे में दलालों की बाढ़ आयी हुई है |साहित्य भी इससे अछूता कहाँ रह गया है ?
    Posted by जीवन सिंह at 05:06 No comments:
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    यह स्वभाव है कि
    परिचय से ही
    पसंदगी बढ़ती है
    या फिर जिससे
    स्वार्थ की संभावनाओं के आकाश में
    सितारे दीप्त होते हैं |
    Posted by जीवन सिंह at 05:06 No comments:
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    Thursday, 6 August 2015

    समय को पहचानो
    उसकी नजाकत को जानो यार
    इस समय
    जो विरोध में होगा
    समझो
    वह चीजों को जान गया है
    जो समर्थन करेगा
    उसने कभी मरुस्थल की यात्र्रा नहीं की है
    Posted by जीवन सिंह at 22:42 No comments:
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    लड़ाई यह सोचकर नहीं की जाती
    कि इसमें कितना नुकसांन फायदा होगा
    जो ऐसा सोचते हैं
    व्यापारी होते हैं
    और हमेशा
    हर तरह की
    सत्ता की चापलूसी में
    नारे लगाते पाए जाते हैं
    Posted by जीवन सिंह at 22:35 No comments:
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    समय का शिशु
    हमेशा
    मुझसे पूछता है कि
    क्या तुम जानते हो कि
    कहाँ जाना है
    और कैसे जाना है
    किनका साथ लेना है
    और किनका देना है
    शिशु का उत्तर मेरे पास नहीं
    सवाल के जबाव में
    मैं खुद से सवाल पूछने लगता हूँ
    उत्तर कभी नहीं तलाशता
    दोष गिनाने लगता हूँ
    उनके
    जो कर्मरत हैं
    जिन्होंने सुबह सुबह सड़क को बुहार कर
    साफ़ किया है
    जिन्होंने दूसरों के वस्त्रों पर
    प्रेस की है
    जिन्होंने खेत की माटी को
    अपनी साँसों की
    दीवट बनाया है
    वे मेरी कसौटी से अभी बहुत दूर हैं
    जिनके कपडे मैले हैं
    जिनके बदन से पसीने की गंध आती है
    मेरी कसौटी में वे कहाँ हैं
    इस तरह से मैं अपना कद
    बड़ा करता हूँ
    क्योंकि यहाँ कोई ऐसी कसौटी नहीं
    जो नागरिकों को सिर्फ बाहर से
    उनके चेहरे देखकर नहीं
    भीतर से जांच सके
    आत्मा के अन्धकार की थाह ला सके
    इसी उधेड़ बुन में
    सारा समय सिरा जाता है
    जैसे बरसात का पानी
    किनारे और गहराई न हों तो
    बह जाता है |
    Posted by जीवन सिंह at 22:23 No comments:
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    सिन्धु में हिन्दू
    इस्लाम में शांति
    बौद्ध में बोध
    जैन में जिन
    सिख में शिष्य
    ईसा की करुणा
    जीवन के परम सन्देश
    लेकिन देश इनमें कहाँ है ?
    देश इनके भीतर जब रहेगा
    सिन्धु, शांति , बोध , जिन
    सबके अर्थ बदल जायेंगे |
    Posted by जीवन सिंह at 21:27 No comments:
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    Wednesday, 5 August 2015

    कहाँ सुरक्षित है
    रेलयात्रा की तरह
    हमारी जीवन यात्रा
    गहरा रिश्ता है इनमें
    जैसे नदी और तट में
    जैसे खेत और फसल में
    जैसे सूरज और उसके ताप में
    जैसे शहर में और सड़क में
    जीवन यात्रा सुरक्षित यदि नहीं
    होंगी अन्य सभी यात्राएं
    सूखी नदी की तरह
    जीवन यात्रा के सुरक्षित होने पर
    हो जाती हैं
    अन्य यात्राएं सुरक्षित
    जैसे वृक्ष मूल की उर्वरता से
    फूल फल |
    Posted by जीवन सिंह at 22:20 No comments:
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    उत्तर ---क्रिया पर भी नियंत्रण तभी हो सकता है जब मन पर नियंत्रण हो |मूल बात तो मन की ही है वही सारे नियंत्रण रखता है |

    उत्तर ---लेकिन क्रिया संचालक तो मन ही होता है |वह मन और क्या मस्तिष्क ही तो होता है |सारी क्रियाओं का केंद्र मस्तिष्क में है | सभी क्रियाओं के आदेश वहीं से प्रसारित होते हैं | मन , ह्रदय , मस्तिष्क ये सभी दिमागी क्रियाएं हैं और कुछ नहीं |मन पर नियंत्रण न रख पाने वाले सारे उलटे---सीधे करतब करते रहते हैं |इसीलिये आजकल ब्रेन डैड हो जाने पर मृत्यु मान ली जाती है चाहे हार्ट काम करता रहे |

    Posted by जीवन सिंह at 21:42 No comments:
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    इन विषयों पर मौलिक लेखन होना चाहिए |अनुवाद में तो ऐसा ही होता है जब तक कोई अनुवादक भाषा और विषय दोनों में पारंगत नहीं हो |विज्ञान और समाजशास्त्रीय विषयों में अच्छे अनुवाद , जो हिंदी भाषा की प्रकृति के अनुकूल हुए हों , बहुत कम पढने में आते हैं |इतना समय हो गया क्या अब भी इन विषयों को समझकर मौलिक ढंग से नहीं लिखा जा सकता |अनुवाद में हमेशा उस भाषा का दबाव और तनाव रहता है जिस भाषा से अनुवाद किया जाता है |
    Posted by जीवन सिंह at 21:38 No comments:
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    Monday, 3 August 2015



    आधुनिक समय में हिंदी की चुनौतियां


    डा जीवन सिंह



    हिंदी के सामने हमेशा से ख़ास चुनौती आधुनिक तत्त्व बोध और अपनी जगह हासिल करने की  रही है जिसमें वह सबसे ज्यादा पिछडती रही है |उसके अनेक ऐतिहासिक ---सामाजिक---आर्थिक---राजनीतिक  कारण रहे हैं |पहला  मुख्य ऐतिहासिक कारण भारतीय जन का उसकी अपनी  सत्ता से बेदखल होना रहा है |हमारा समाज ऐतिहासिक तौर पर अपनी स्वाभाविक गति से दूर हटता चला गया है और इसे कई ऐसी बाहरी सत्ताओं का सामना करना पडा है जो अपने साथ अपनी प्रभुता ही नहीं वरन  अपना सांस्कृतिक तामझाम भी साथ लेकर भारत में आई ,जिन्होंने यहाँ आकर भारत की स्वाभाविक गति को अच्छे और बुरे दोनों अर्थों में प्रभावित किया |बुरे तौर पर ज्यादा, अच्छे तौर पर कम क्योंकि  पराधीनता कैसी भी क्यों न हो , हमेशा दुखद होती है |कुछ लोग अंग्रेजों की गुलामी को खासतौर से  देश के लिए वरदान जैसा मानते हैं किन्तु इतिहास---गति से मालूम है कि किस तरह से वे यहाँ के समाज की विभाजित एकता में गहरी दरार डालकर   अपना उल्लू सीधा करते थे |जैसा कि सब जानते हैं कि वे यहाँ आये थे व्यापारी बनकर किन्तु लगातार अपनी कुटिल चालों और यहाँ की अपनी बुनियादी कमजोरियों को समझते हुए वे व्यापारी यहाँ के शासक बन गए |चूंकि भारत की पूंजी के बल पर उन्होंने अपने देश का औद्योगिक—तकनीकी विकास किया जिसकी ताकत से वे लगभग दो शताब्दियों तक यहाँ जमे रहे |यह कालखंड भारतीय इतिहास  का सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण हिस्सा है जिसमें भारतीय समाज ने अपमी मौलिकता को लगभग खो दिया |मौलिकता के नाम पर यहाँ शेष रहा केवल रुढ़िवाद और दकियानूसीपन |और नवीनता तथा आधुनिता के नाम पर हाथ लगी विदेशी भाषा और विदेशी मानसिकता |अंग्रेजों के दो सौ साल के शासन ने यहाँ उनका एक बेहद प्रशंसक वर्ग तैयार कर दिया था जो सांस्कृतिक तौर पर पूरी तरह से उनका गुलाम हो चुका था , जो भारत की सामान्य जनता के दुःख---दर्दों से किताबी रिश्ता ज्यादा रखता था और जिसने उसके दुःख दर्दों को भीतर से महसूस करने का नाटक ज्यादा किया था |इस वर्ग में  महात्मा गांधी जैसे लोग अपवाद की तरह थे | जो अपने कुछ दकियानूसीपन के बावजूद मैलिक ढंग से सोचने की क्षमता रखते थे |लेकिन आज़ादी मिलने के बाद विभाजन होने की वजह से वे इतने कमजोर हो चुके थे कि कर कुछ भी न सकते थे |उनकी नैतिक ताकत का असर इस समय तक लगभग ख़त्म हो चुका था | उनको जो करना था वह काम वे पूरा कर चुके थे |उनके  पीछे उनके जो अनुयायी थे वे उनको सांस्थानिक तौर पर ज़िंदा रखने के काम में लग गए थे |भाषा---संस्कृति का सवाल दकियानूसी वर्ग के हाथ में चला गया था जो हिंदी को आधुनिक बोध से संपन्न करने की बजाय केवल नारों के बल पर हिंदी को स्थापित करना चाहते थे |वैसे भी इस समय तक हिंदी के वास्तविक और प्रभावी क्षमतासंपन्न कितने से लोग रह गए थे | सत्ता मिल जाने के बाद कितने ही लोग थे जो अपनी बात से पीछे हट गए थे |उसी का परिणाम था कि देश में फिर से अंग्रेजों का नहीं , अंगरेजी का वर्चस्व कायम हो गया था |
    अठारहवी सदी के मध्य में काबिज हुई अंगरेजी हुकूमत ने वस्तुतः देश की बुनियाद को क्षत---विक्षत कर दिया था |उन्होंने अस्वाभाविक तौर पर यहाँ के देशी सामाजिक----आर्थिक---सांस्कृतिक प्रवाह को इस तरह से अवरुद्ध किया कि आज तक देश का सामान्य मेहनतकश वर्ग उसका दुष्परिणाम भोग रहा है |हुआ यह कि वे जब यहाँ से गए तब तक देश में अपना समर्थक  एक ऐसा प्रभुतासंपन्न अंग्रेजीदां वर्ग तैयार करके गए थे जिसने उनके जाने के बाद यहाँ भारतीय सत्ता को हासिल किया और वे अंग्रजों की नीतियों को प्रगतिशील मानकर सामान्यतया उनपर ही चलते  रहे | देश को आज़ादी तो जरूर मिली पर वह इसकी पुरानी  बुनियाद को बदल न सकी | लोकतंत्र के नए भवन में ऐसा शायद ही कुछ हो जो भारत की संस्कृति को पुरातनता से मुक्ति दिला सके |क्या वजह है कि स्वतंत्र भारत में जितना विकास होता गया है उतना ही जातिवाद और साम्प्रादायिकता दोनों अपनी प्रभुता और पकड में वृद्धि करते चले गए हैं  ? कदाचित उस समय के प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु को अपनी भाषाओं की क्षमताओं पर ज्यादा भरोसा नहीं था |जरूरत थी देशी भाषाओं को सब तरह से आधुनिक बोध से संपन्न बनाने की  |ज्ञान---विज्ञान और समाज विज्ञान आदि के स्तर पर मौलिक अनुसंधान से आपूरित करने की  |लेकिन काम हुआ सिर्फ अनुवाद का | कोई भाषा किसी विदेशी भाषा के ज्ञान के अनुवाद से अपनी मौलिकता अर्जित नहीं कर सकती |मौलिकता के लिए मौलिक तौर पर सोचना पड़ता है |जिनकी हिंदी में ही नहीं लगभग सभी देशी भाषाओं में ऐतिहासिक वजह से कमी थी |यह काम अंग्रेज शासकों ने जान बूझकर किया था |उन्नीसवी सदी के आरम्भ से लगाकर मध्य तक उन्होंने भाषा और शिक्षा के सवालों पर बहुत सोचा था जिससे परिणाम निकाला था कि अपनी यानी विदेशी भाषा में शिक्षा देकर ही इस देश की जनता को लम्बे समय तक गुलाम बनाया जा सकता है |कहना न होगा कि लार्ड मेकाले और उसके बहनोई ट्रेवेलियन का ऐसी बहसों को मोड़ देने में उल्लेखनीय योगदान रहा है |यही कारण है कि ---प्रेमचन्द के शब्दों में कहूँ तो यहाँ से गोरा जौन तो गया पर उसी तरह का काला गोविन्द उनकी जगह पर बैठ गया |जिसमें खोयी और गंवाई हुई मौलिकता को लाने का साहस ही नहीं था |जो अंगरेजी ज्ञान—विज्ञान का इतना कायल हो चुका था कि शायद यह जरूरत ही नहीं समझता था कि देशी भाषाओं में कुछ काम करने की जरूरत है |अंगरेजी के माध्यम से वे जन—राज की बजाय अपने वर्ग का राज आसानी से कायम रख सकते थे |हिंदी और देशी भाषाओं के शासन---प्रशासन में दखल होने का मतलब था देश की सामान्य जनता की दखल और पारदर्शिता –स्वच्छता की संभावनाओं को बढ़ावा | अंगरेजी के नाम पर सब कुछ जनता से आसानी से छिपाया जा सकता है |इसलिए चुनौती इस बात की नहीं है कि हिंदी में आधुनिक ज्ञान—विज्ञान की शब्दावली नहीं है |यह नहीं है वह नहीं है |यह अभाव है वह अभाव है | यह कमजोरी है वह कमजोरी है |सबसे बड़ी कमजोरी है हिंदी और उस जैसी देशी भाषा भाषियों की अजागरूकता , गरीबी और लोकतांत्रिक नैतिकता से दूरी होना और इस समुदाय के मध्य वर्ग का बेहद अवसरवादी होना |सबसे बड़ी कमजोरी है हिंदी समाज (जाति) का कई सूबों में विभाजित होना |देशीभाषा के लिए आन्दोलनकारियों का उदासीन होते चले जाना और नव उदारवादी अर्थव्यवस्था तथा निजीकरण (वैश्वीकरण ) की जकड़बंदी |
          जहां तक साहित्य का सवाल है साहित्य के मामले में हिंदी कहीं भी पिछड़ेपन का शिकार नहीं है |उसके साहित्य में आज तक का आधुनिक बोध मौजूद है |उसकी कविता, कथा साहित्य, आलोचना आदि विधाएं आज विश्व की किसी भी भाषा के साहित्य से शायद ही पीछे हों |चिंतन के मामले में भी उसने सिद्ध कर दिया है कि वह पूरी तरह से समर्थ ही नहीं एक प्रवहमान भाषा है |लोकतंत्र को धारण और वहन करने में वह पूरी तरह से समर्थ है और यह काम उसने दो शताब्दियों से भी कम समय में पूरा कर लिया है |हिंदी कोई अशक्त और कमजोर भाषा नहीं है |उसने सिद्ध कर दिया है कि वह अकेली भाषा है जो देश को अपनी बहन भाषाओं के साथ मिलकर एकता के सूत्र में जोड़ सकती है |आज़ादी की लड़ाई के प्रमुख नेता महात्मा गांधी ने हिंदी के इस महत्त्व को खुले मन से स्वीकारा है |हिंदी के माध्यम से देश ने आज़ादी की लम्बी लड़ाई औपनिवेशिक ताकतों से लड़ी है |१८५७ का पहला स्वाधीनता संग्राम तो हुआ ही हिंदी प्रदेशों में हिंदी भूमि पर |लेकिन जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि ज्ञान---विज्ञान में अठारहवी सदी  से ही अंगरेजी  शासकों की भाषा नीति से देश की समस्त भाषाओं को अंधी कोठारी में धकेला गया |अंगरेजी शासक जानते थे कि जिस देश को उसकी भाषा---बोली से महरूम कर दिया जाता है , वह राष्ट्र गूंगा हो जाता है |उनके लगभग दो सौ साल के शासन काल में देश पूरी तरह से एक गूंगे राष्ट्र की तरह रहा |उसने पहले जब अपनी भाषा में बोलने की कोशिश की तो उसमें वे विजय हासिल न कर सके किन्तु उसी से उन्होंने जब दूसरी बार बोने का प्रयास किया तो अंग्रेजों को यहाँ से जाना पडा |कोई राष्ट्र जब अपनी भाषा बोलना सीख जाता है तो फिर वह पराधीन नहीं रह सकता  | इसीलिये कोई भी शासक वर्ग सबसे पहले जनभाषा के मार्ग को अवरुद्ध करता है | यही अंग्रेजों ने किया और इसी परम्परा को आज तक धोया जा रहा है |अपना काम चलाने  और देश को आंतरिक तौर पर गुलाम बनाए रखने के लिए जो नीति अंग्रेज शासकों ने  बनायी , उस इतिहास को जाने बिना हम असली चुनौती को जान ही नहीं सकते | क्योंकि उस इतिहास का वजन हम आज तक उतार नहीं सके हैं |
    यद्यपि  यह चुनौती सभी देश भाषाओं के साथ रही है |जो भाषा आधुनिक ज्ञान---विज्ञान समृद्ध नहीं होगी ,उसके सामने चुनौती के अलावा और क्या होगा ?

    डा जीवन सिंह
    1/14 अरावली विहार
    अलवर ---301002
    राजस्थान
    Mob---09785010072
    Email---jeevanmanvi19@gmail.com

                



    Posted by जीवन सिंह at 20:42 No comments:
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    जची चंगेरी खूब

    दोहे की खासियत है कि इसमें थोड़े अल्फाजों में कोई बड़ी या गहरी बात कहनी पड़ती है फिर भी यह जरूरी नहीं है कि हमेशा बड़ी बात ही कही जा सके |छोटी छोटी बातों को कहने के लिए भी दोहे को खूब काम में लिया गया है |दरअसल दोहे का औजूर बड़ा नहीं है |चार चरणों का छोटा सा छंद है पर कई बार ग़ज़ल के शे,र से टक्कर लेता है |इसके पहले चरण में तेरह  और दूसरे  में ग्यारह मात्राएँ होती हैं |तीसरे में फिर तेरह और चौथे चरण में ग्यारह मात्राएँ होती हैं |मेवाती के लोक कवियों ने अपने मन की मौज में दोहे लिखे है इस वजह से कई जगह पर मात्राओं का गणित गड़बड़ा गया है |मेवाती का दूहा अपनी कहन  के अनुसार लंबा भी हो जाता है |मीरासी अपने संगीत के हिसाब से उसे लंबा कर देते हैं | बहरहाल मैंने मेवाती में जो दोहे कहे हैं उनमें इसके शास्त्र का ध्यान रखा है कि वे मात्राओं के अनुसार रहें |इस बात का भी ध्यान रहे कि दोहों में पुराने जमाने की बातें भी आज के हिसाब से आएं क्योंकि हमारी दुनिया आज की दुनिया है |हमारी आँखें कभी पीछे की तरफ नहीं देखती |वे हमेशा आगे की ओर देखती हैं और आगे की ओर ही चलती हैं |कभी कभी जरूरत के अनुसार पीछे मुड़कर जरूर देख लिया जाता है |अतीत मोहक अवश्य होता है किन्तु व्यक्ति का काम हमेशा वर्तमान से चलता  है |वैसे भी पिछलग्गू को ज्यादा अच्छा नहीं माना जाता |
    कोशिश रही है कि मेवाती जीवन की वे ख़ास बातें दोहों में जरूर आयें जिनसे आज का मेवाती युवक वाकिफ नहीं  है | अपने इलाके से परिचित रहने के लिए भी दोहों को कहा गया है |बड़े लोग कहते हैं की जो अपने गाँव---इलाके का नहीं वह दुनिया का कैसे हो सकता है |पहले जब हम खुद को जान लेते हैं तभी दूसरे और दुनिया को जान पाते हैं |जिसने खुद को नहीं जाना कि वह क्या है , वह दूसरे को कैसे जानेगा ?जानने की इस प्रक्रिया में दोहों को कहना होता है ?
    मेवाती लोक जीवन में इंधन की समस्या को पशुओं के गोबर को थेप कर दूर किया  जाता है |गोबर के ऊपले महिलाएं थेपती हैं और उनकी सुरक्षा के लिए बटेवडा बनाती हैं जिसे भयाना मेवात की तरफ ब्रज से सटे इलाके में बिटौरा कहते हैं |बटेवडा यानी बिटौरा |एक दोहा मेवात की इस कला पर है -----

    पहले थेपा ऊपला, फिर दिनों आकार |

    घणी सुतेमन सरूपी , रही बिटौरा ढार ||१||


    बिटौरा को लेकर मेवात में एक कहावत बन गयी है ---करकेंटा  की चोट बिटौरा पे | इसी कहावत को ध्यान में रखकर एक दोहा कुछ इस तरह से बन गया -------

     

    ठौंडा की खिदमत कराँ ,धरां गरीबी खोट |

    सदा बिटौरा पे रहे , किरकेंटा की चोट |२||


    मेवात में गर्मियों के दिनों में ठालप में अनेक तरह के कलात्मक बीज़णा बनाने की परम्परा लम्बे समय से चली आ रही है | मेवात की महिलाएं इस काम में बहुत दक्ष और कुशल होती हैं |वे इसी तरह चंगेरी भी बनाती है जो रोटी रखने से लगाकर कई तरह के काम आती हैं |कैसे आश्चर्य की बात है कि यह उन हाथों की कला है जिनसे वे दूब खोदती हैं |इसको ध्यान में रखते हुए कहा है --------

    रंग—बिरंगा बीजणा , जची चंगेरी खूब |

    उन हाथन की कला हा , जिनसू  खोदी दूब  ||३||


    बीजणों और चंगेरी की तरह मेवात में मेवनियाँ  पहले अपना सामान और सौदा---सुलुफ खरोला , जिनको अलवर की तरफ खारी भी कहते हैं ,में लाती ले जाती थी |ये सारी बातें बतलाती हैं कि मेव समुदाय का जीवन प्रकृति के बहुत अधिक नज़दीक रहा है |बर्तन इत्यादि भी अधिकतर मिट्टी के ही होते थे |बेहद सादगी भरी जिन्दगी रही है मेव---समाज की ,जिसमें किसी तरह का कोई बनावटीपन नहीं था |अपने आदिम स्वभाव की वजह से पशुपालन मुख्य धंधा था |खरोले या खारी को याद करते हुए इस दोहे में कहा है -------

    पैदल चल दी गाँव सू, तनक करी ना देर |

    धरै खरोला सीस पे ,पहुची कीनानेर  ||४||


    मेवात में एक कहावत है उस अवसर की जब कोई किसी तरह की परेशानी में नहीं होता तो कहता है कि मेरो पड्डा कीच में ना बंधरो है जो मैं वाकी आजीजी करूँ |लेकिन मैंने अनुभव किया है कि खेती पर निर्भर रहने वाले किसान का पड्डा हमेशा से कीचड में ही बंधा रहा है ---------

     

    पीछे पड़ रा भेड़िया , पीछे लगरो  रीछ |

    खेती और किसान कौ , पड्डा बंधरो कीच ||५||


                           कुछ और दोहे खेती---किसानी पर -----


    कातक फसल सुहावनी उठे चैत बैसाख |

    जेठ साड में जो बुबे कातक पिछले पाख ||६||


    कातक आबे हाथ में  मौठ बाजरा ज्वार |

    गेंहू सरसों जौ चना  , बैसाखी दमदार ||७||


    Posted by जीवन सिंह at 20:41 No comments:
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    उच्च चिंतन और उच्च आदर्श अपनी सहज भाषा में भी खूब किया जा सकता है और वह परम्परा के साथ नया और आधुनिक भी तो होना चाहिए |जो समाज अपने नए आदर्श नहीं गढ़ सकता और नए सपने नहीं देख सकता वह अपनी नयी और सहज भाषा भी कैसे ईजाद कर पायगा और उसमें उच्च चिंतन भी नहीं होगा |वह हमेशा पुराने के गीत ही गाता रहेगा |
    Posted by जीवन सिंह at 05:25 No comments:
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    Sunday, 2 August 2015

    बोलचाल की कैसी भाषा ?-----------
    जब आप हर बात में यह कहेंगे कि बोलचाल की भाषा में लिखो तो आजकल मध्यवर्ग के बच्चे, युवा और अभिभावक जैसी भाषा बोल रहे हैं और बुलवाना चाहते हैं उसी तरह की भाषा वे लिखेंगे भी |अंगरेजी की संज्ञाओं के साथ हिंदी की क्रियाएं तो आमतौर पर आज का मध्यवर्ग बोलने लगा है |एप्पल खा लो , बनाना खा लो जैसी भाषा तो अक्सर लोग बोलने और जोर देकर बच्चों से बुलवाने लगे हैं | एक दिन जयपुर यात्रा का प्रसंग है मैं अलवर से बस द्वारा जयपुर जा रहा था |रास्ते में सरिस्का अभ्यारण्य से बस गुजरती है |इस जंगल में बंदरों की अच्छी तादाद है ,शाखामृग हैं , खूब उछलकूद करते हैं और बन्दर घुड़की भी खूब देते हैं |खासकर यात्रियों द्वारा 'पुण्य' कमाने के उद्देश्य से डाले गए केलों को खाने के लिए मार्ग में सड़क के दोनों ओर ये शाखामृग इंतज़ार में बैठे रहते हैं |इस यात्रा में मेरे आगे वाली सीट पर एक युवा परिवार अपने बच्चों के साथ यात्रा कर रहा था |बंदरों को देखकर जैसे ही एक बच्चे ने अपनी जिज्ञासा जाहिर करते हुए बन्दर शब्द का उच्चारण किया कि पिता ने लगभग डांट लगाने के लहजे में कहा कि नहीं बच्चे बन्दर नहीं , मंकी बैठे हैं |मैं हैरत में था कि बच्चा हिंदी बोलना चाहता है किन्तु यह पिता है जो हिंदी बोलने में अपनी तौहीन समझ रहा है |अब यदि अखबार वाले , जो व्यवसाय के लिए अखबार निकाल रहे हैं किसी बड़े सदुद्देश्य के लिए नहीं , तो वे भी उसी भाषा का प्रयोग करेंगे जिसे अभिभावक चाहते हैं | यही वजह है कि हिंदी अखबारों की भाषा आज एक अजीब शोचनीय और दयनीय हालत में है वह न अंगरेजी हैं न हिंदी |एक जबरदस्त खिचडी माहौल है |यह मध्य वर्ग की बीमारी है |जो न इधर का है न उधर का |यह बीमारी संक्रामक रोग की तरह तेज़ी से फ़ैल रही है | हिंदी माध्यम के स्कूलों को उच्च आदर्श और उच्च चिंतन की भाषा के केन्द्रों के रूप में संचालित किये जाने की मुहिम चलाने की जरूरत है |इसके अलावा कोई चारा नहीं है |हिंदी माध्यम के स्कूलों में तो नैतिक शिक्षा के नाम पर न जाने क्या क्या पढ़ाया जा रहा है ?बहुत शोचनीय स्थिति है |
    Posted by जीवन सिंह at 23:38 No comments:
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