Thursday 19 December 2013

इन दिनों कविवर निलय उपाध्याय अपनी गंगा तट की यात्रा पर हैं और अपने सभी तरह की यात्रा अनुभव लिख रहे हैं । इनमें एक अनुभव कानपुर की बीस अंगरेजी स्पॅलिंगों को लेकर है कि वे किस तरह काल के अनुसार समय समय पर बदलती रही । ऐसा केवल कानपुर के साथ ही नहीं है । औपनिवेशिक काल में सत्ताधारी अँगरेज़ शासकों ने अपने उच्चारण के अनुसार हमारे देश के स्थान और नामवाची  संज्ञाओं के साथ ऐसा ही सलूक किया । देहली को उन्होंने ही"डेल्ही" बनाया जो स्वाधीनता मिलने के बावजूद   सही नहीं हुआ है । कोलकाता , मुम्बई और चेन्नई सब अपनी भाषा की संज्ञाएं बन चुकी हैं , जो उन प्रदेशों की जनता की  जातीय चेतना की सूचक हैं ।  किन्तु हिंदी प्रदेश की" दिल्ली" के साथ ऐसा नहीं । इसी से लगता है कि हिंदी -प्रदेशों की जनता में अपनी भाषा के प्रति " जातीय चेतना " की कितनी कमी है ?हमारे अलवर के साथ भी ऐसा हुआ था । अंगरेजी सत्ता के अधीन जब अलवर एक देशी रियासत था , तब उसकी स्पैलिंग अंगरेजी के यू से शुरू होती थी , जिसकी वजह से दिल्ली दरबार में अंगरेजी के अकारादि क्रम  से अलवर के राजा जय सिंह की कुर्सी आखिर में लगती थी । इसको  उन्होंने  अपना अपमान समझ कर पहला काम यही किया कि अलवर की स्पेलिंग बदली और उसे अंगरेजी के ए से शुरू कराया और उनकी कुर्सी सबसे पहले लगने लगी । इतना ही नहीं उन्होंने १९०८ में ही अपने राज्य की राजभाषा अंगरेजी के स्थान पर हिंदी/उर्दू  को कर दिया तथा राजसेवकों को उसे सीखना लाजमी कर दिया । जनता तो हिंदी और उसकी बोलियों में बोलती ही थी । 
 

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