दिल्ली में आप---का रास्ता साफ़ होता दिख रहा है । संस्कृत में एक कहावत चलती है कि " जहां पेड़ नहीं होते वहाँ एरण्ड (अंडोरा का पेड़) का पेड़ ही --पेड़ कहलाता है ।"एरण्डोपि द्रुमायते"--- "भूख में किवाड़ भी पापड़ हो जाते हैं । " इस आधार पर जैसा भी और जितने दिन का भी विकल्प मिलता है तो लोग बेझिझक उसे ही स्वीकार कर लेते हैं ।कोई रास्ता भी तो नहीं । उसके कसौटी पर खरा न उतरने पर जनता उसे भी उल्टी पटकनी देती हैं । फिर यदि जनता या जनमत ही असली ताकत हैं तो यह काम भी जनमत ने ही तो किया है कि सर्वाधिक मत पाने वाली पार्टी को सरकार बनाने की हिम्मत नहीं है और एक अल्पमत जनादेश को सरकार बनाने के लिए कहा जा रहा है ।विकल्पहीनता के जंगल से होकर विकल्प की पगडंडियां दिखाई देने लगती हैं बशर्ते कि राजनीतिक चेतना का चंद्रोदय होता रहे । फिर हम यह तो जानते ही हैं कि इस समय लगभग पूरी दुनिया बुर्जुआ लोकतंत्र की सीढ़ियों पर बैठी हुई है और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की गिरफ्त में है ।
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