खुशी की बात है कि कविता,साहित्य , आलोचना और कला के कारकों में लोक-तत्त्व का विस्तार हो रहा है । यह आज की कलात्मकता का जरूरी हिस्सा है । यही लोक-तत्त्व हमारे दैनिक जीवन - व्यवहार का अंग जब बन जायगा तो मूल धारा की तरह बहने लगेगा । लोक तत्त्व कई जगह फैशन की तरह भी आता है ,जीवन में नहीं होता ।सादगी और साधारणता इसकी प्रकृति का निर्माण करते हैं । लोक-तत्त्व की जमीन हमारे उस लोक-जीवन में है जो किसान-मजदूर की सहज जिंदगी के स्रोतों से उद्भूत होता है ।अब यह रोजगार के दबाव से अपनी जमीन से विस्थापित होकर शहरी रूप भी ले रहा है ।यह सच है कि पूरी दुनिया का सञ्चालन श्रम और उससे नाभिनाल-बद्ध शक्तियां ही करती हैं इस वजह से हर युग का बड़ा और कालबद्ध साहित्य इन श्रम -शक्तियों को अपना आधार बनाता है ।
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