Friday 6 December 2013

सपेरे

कम हो रहे हैं सपेरे
बीन बजाते
अपने सुरों की दुनिया बसाते
सपेरे कम हो रहे हैं
और साँपों के डेरे बस  रहे हैं
उजड़ रहे है गांव-खेड़े

सांप कभी अपना बिल नहीं बनाते
दूसरों के बनाये बिलों में घुस जाते हैं
बनाता कोई
और रहता है कोई
यह सांप की प्रकृति का हिस्सा है

उनके विष की पहचान गायब है
वे अपना फण फैलाकर
फुफकारते हैं ,डराते हैं
यह सपेरा ही जानता है
कि उसके विषदंत कैसे उखाड़े जाते हैं ?
जब यह कला आ जायगी तो
सांप तो  रहेंगे  , उनका विष नहीं ।  

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