भाषा-माध्यम आदि के सम्बन्ध में अनेक तरह के विचार और तर्क-वितर्क चलते रहते हैं । मेरी समझ में माध्यम जितने भी हैं , दुधारे का काम करते हैं । माध्यम में मध्यस्थता रहती है जो किसी को जोड़ने का काम कर सकती है और तोड़ने का भी । जब तक सत्ता चरित्र वर्गीय है तब तक सत्ता -पतियों के हाथों में सत्ता-भाषा की लगाम भी रहती है ।किसी भी माध्यम में 'मध्य' की भूमिका होती है । यही हाल मध्य वर्ग का भी रहता है ,वह सत्ताधीश उच्चवर्ग का सहायक भी हो सकता है और विरोधी भी ।इसलिए भाषा-माध्यम के बारे में कहा जा सकता है कि भाषा को निर्मित करने वाले समाज की जैसी मानसिकता और कर्म होता है , भाषा वही रूप ले लेती है ।
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