Friday, 31 July 2015

विचार में स्वाधीनता के लिए पूरा अवसर होना चाहिए , भले ही वह किसी विचारकर्ता के अपने मत के कितना ही विरोध में जाए |जो विचार विवेकशून्य होकर अपनी डिक्टेटरशिप स्थापित करने के लिए या सिर्फ अपना सम्प्रदाय बढाने के लिए किया जाता है समझो वह धार्मिक मतवाद की श्रेणी में चला गया है | यह धर्म---मजहब का बंधा बंधाया अतीतगामी विचार होता है जो दूसरे को आज़ादी नहीं देता |आज़ादी का कांसेप्ट ही धर्म और पुरानी सामाजिक जकडन को खत्म करने के लिए आया किन्तु देखने में आ रहा है कि देशभक्ति के मामले में भी वह आड़े आता है जब कुछ लोग देशभक्ति को एक निश्चित संकीर्ण वैचारिक सांचे में ढाल कर एक नमूने की तरह से पेश करते हैं |तब ऐसा होता है |देशभक्ति का कोई एक रूप नहीं हो सकता क्योंकि वह विवेकशून्य होकर कभी नहीं की जा सकती और न ही संकुचित भाव से |

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