- सर बहुत बार कथानक के अंतर्गत चरित्र का आचरण सुनिश्चित करते हुए, साधारण लोक व्यवहार से ही प्रसंग को संदर्भित किया जा सकता है. राम की यह उक्ति एक आलोचकीय पाठ से देखने पर नितांत भिन्न अर्थ देगी और सामान्य लोक-आवेग की बुनियादी अभिव्यक्ति के स्तर पर अलग अर्थ रखेगी.....अब दोहा देखें-
'बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति| बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति||'
विषादग्रस्त, अपमानग्रस्त और चोट खाया एक व्यक्ति समूचे संवादपरक आवेदन के साथ मौजूद है....और दूसरे पक्ष से किसी भी तरह का कोई उत्तर नहीं, सब कुछ अनसुना कर दिया जाना और उपेक्षा भाव रखना. इसमें कोई दोराय नहीं कि जिस तरह से 'विनय' एक मूल्य है वैसे ही 'कोप' भी एक विशेष देश-काल में सुचिंतित बोध है....एक पीड़ित व्यक्ति की भाव-मनोदशा को भी परिवेश के सिद्धान्तीकरण के बहुत सारे आयामों में चिन्हित करना होगा....प्रीति और भय को भी यहाँ किसी सरलीकृत, परम्परागत, एकायामी अर्थ भर से रूपायित नहीं किया जा सकेगा, इस उक्ति के सापेक्ष एक समानांतर समाजशास्त्र भी काम कर रहा है.
इसलिए यह कथन एक कथा(जीवन) के अंतर्गत आने वाली रोजमर्रा की उठा-पटक से निकला है.....यह कोई सिद्धांत भले ही नहीं है पर तात्कालिक चेतना का नैमित्तिक सत्य तो हो ही सकता है........ - Jeevan Singh सुबोध भाई , लेकिन लोक व्यवहार में अक्सर लोग इसको एक सिद्धांत की तरह से पेश करते हैं और अपने दंडविधान का हर जगह पर औचित्य ठहरा देते हैं क्योंकि यह राम के मुख से कहलवाया गया आप्त कथन है |यहाँ या तो तुलसी की भाषा गच्चा खा गयी है या उनका सिद्धांत | बीति की तुक मिलाने के लिए कदाचित प्रीति शब्द का प्रयोग हो गया |इससे भय और प्रेम का सम्बन्ध स्थापित हुआ जबकि बात सिर्फ काम होने की थी |रास्ता देने की थी | तब इसे सन्दर्भ से काटकर प्रयोग नहीं किया जा सकता था |बात तब कुछ इस तरह से होती -------बिनय न मानत जलधि जड, बीते कितने याम |बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न काम ||------यदि यही भाव मुक्त छंद में व्यक्त किया जाता तो प्रीत शब्द का प्रयोग कदापि नहीं किया जाता , इस जगह पर कोई और शब्द होता |क्योंकि जो प्रीत भय से होगी वह प्रीत नहीं रह जायगी |प्रीत स्वाधीन भावों की कोटि में आने वाला सुखदाई भाव है जबकि भय स्वयं में दुखदायी है | प्रेम दोनों पक्षों के स्तरों पर स्वाधीन होने को प्रमाणित करता है |इसका उदाहरण है श्री--कृष्ण और गोपियों के बीच का प्रेम जहां वे सभी तरह के बंधनों से मुक्त हैं | जहां बंधन है वहाँ भय भी है |लेकिन यहाँ भय और प्रेम का सम्बन्ध स्थापित कर दिए जाने से सारा गड़बड़झाला हुआ |यही नहीं तुलसी की और भी कई चौपाइयां हैं जिनका लोग अपने अनुचित व्यवहार का औचित्य ठहराने के लिए एक मिसाल के तौर पर इस्तेमाल करते हैं |यदि राम के अलावा अन्य किसी पात्र के मुख से यह बात कहलवायी गयी होती तो शायद लोकोक्ति की तरह प्रयुक्त नहीं होती |कहलवाई गयी बात के सन्दर्भ अलग हो सकते हैं किन्तु राम के मुख से कहलाई गयी बात का अपना अर्थ और महत्त्व होता है |यह अब समाज में एक कहावत या सिद्धांत की तरह प्रयुक्त होती है अतः इसको खोलना बहुत जरूरी है | वैसे ही हिंदी जाति न जाने कितने कितने गलत---सलत कहावत---मुहावरों का बोझ अपने मन पर लादे हुए है |जब एक गुंडा भी इस कथन के माध्यम से अपने व्यवहार का औचित्य कायम करता है तो वहाँ सारा संदर्भ---प्रसंग लुप्त हो जाता है और यह कथन निरपेक्ष अर्थ देने लगता है |जैसे लाख कोशिश करने पर भी लोग विभीषण को घर का भेदी ही मानते हैं |तुलसी उसे एक मूल्यधर्मी भक्त की तरह से पेश करते हैं किन्तु लोक व्यवहार में उसे कौन मानता है ?उनके लिए तो विभीषण घर का भेदी है ?
- Subodh Shukla मैं सहमत हूँ सर....असल में चरित्र और कथा-वस्तु की जो योजना कवि-निर्धारित होती है वह लोक में अपने विपर्यय को कैसे प्राप्त हो जाती है, यह विचारणीय प्रश्न है. मठप्रधान व्याख्याओं और ब्राह्मणवादी अर्थतंत्र की देश-कालिक राजनीति का यह कुफल है.
तुलसी के राम प्रभु और अगम होते हुए भी प्रबंध की सीमाओं और कथा की शर्तों से बंधे हैं.....वे प्रेमी हैं, दुत्कारे हुए हैं, अवमानित हैं, अधिकार-वंचित हैं आदि जबकि तुलसी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते उनकी दिव्यता को बार-बार दर्ज़ करने में. पर रचना के अपने कायदे और नियम हैं जिसमें न तुलसी हस्तक्षेप कर सकेंगे और न राम.......
सवाल सिर्फ मनोवेग और परिस्थितियों के समानांतर भाषा-योजना के व्यवहार का है. किसी शब्द की अर्थ-छवि श्रृंगार में जैसी होगी वैसी ही हास्य या वात्सल्य में नहीं हो सकती.. एक उदाहरण से देखें- 'तुम मेरे वीर हो'..... अलग-अलग भाव-रूपकों में इस शब्द की व्याप्ति बदलती चली जायेगी और लक्षित अर्थ रूपांतरित होता जाएगा....राम की दशा और मानसिकता को देखते हुए , 'विनय', जलधि जड़ और भय के सापेक्ष प्रीति के मायने भी वह नहीं रहेंगे जो सामान्य अवस्था में रहते हैं....
मैं इतना ही कहना चाह रहा था....कोई अनधिकृत चेष्टा हो गई हो तो माफ़ करेंगे...आप सबके सान्निध्य में सीखता-पढता ही रहता हूँ......सादर - Jeevan Singh दरअसल सुबोध जी आपकी बात कथा--संदर्भ में सोलह आना सही है किन्तु जब कोई काव्यपंक्ति अपने सन्दर्भ और उसकी व्यंजना से पृथक होने पर एक सिद्धांत की तरह प्रयुक्त होने लगती है तो उसकी व्यंजना की सीमा समाप्त हो जाती है और वह अपना अभिधापरक अर्थ देने लगती है | तुलसी के अनेक कथंन हैं जिनके साथ ऐसा हुआ है | यह उनकी ताकत भी है और सीमा भी | एक बार आप प्रसंग को छोड़ दीजिये और विचार कीजिये कि आपके सामने सिर्फ इतनी सी बात है कि भय के बिना प्रीति नहीं होती है |इस वजह से कुछलोग भय के आधार पर प्राप्त किये गए सामयिक सम्मान को ही सम्मान समझ बैठते हैं |एक प्रबंध काव्य में प्रयुक्त वाक्य या वाक्यांश जब संदर्भ--स्वतंत्र हो जाता है तो प्रयोक्ता का अपना अर्थ देने लगता है इसलिए भाषा के प्रति बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता रहती है | कोई कृति न केवल अपने कथ्य से कालजयी होती है वरन अपनी भाषा से भी |मैं मानता हूँ कि उक्त दोहे में प्रसंग के अनुसार इसका ध्वन्यार्थ बदल जाता है किन्तु सवाल तो प्रसंग के बाहर इसकी प्रयुक्ति का है जो अक्सर दैनंदिन जीवन में किया जाता है |कई बहुत खराब अफसर तक अपनी तानाशाही के चलते अपने कुकर्म का औचित्य सिर्फ बाबा के कथन का प्रमाण देकर स्थापित करते रहते हैं ------बहरहाल आपकी बात से बात का वह पहलू भी अनावृत्त हुआ जो न होता तो तुलसी के साथ अन्याय हो जाता | तुलसी मेरे भी परम प्रिय कवियों में से हैं |उनकी प्रतिभा वैश्विक है |इसी वजह से बात यहाँ तक चली गयी |आपके संवाद के लिए आभार |
Monday, 27 July 2015
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