हमारे मित्र महेश पुनेठा ने इन दिनों शिक्षा से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण सवाल
उठाये हैं जिनमें एक सवाल वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लेकर है कि क्या वजह है
कि विज्ञान विषय पढ़ लेने के बाद भी पाठक , विद्यार्थी और शिक्षक के मन की
आतंरिक अवैज्ञानिकता दूर नहीं हो पाती ? जहां तक स्कूल में पढने और पढाये
जाने वाले विज्ञान विषय और उससे वैज्ञानिकता सीखने का सवाल है , पहली बात
तो यह है कि बच्चा केवल स्कूल और वहाँ पढाये जाने वाले विषयों से ही सब
कुछ नहीं सीखता |ऐसा होता तो हमारे विज्ञान के शिक्षकों
में एक भी अवैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला अन्धविश्वासी और दकियानूस नहीं होता
|जबकि मेरा अपना अनुभव तो यह कहता है कि विज्ञान के अध्यापकों से ज्यादा
साहित्य और समाज विज्ञान पढ़ाने वाले अध्यापकों का नज़रिया अधिक वैज्ञानिक
रहता है |विज्ञान का अध्यापक लैब से बाहर निकलते ही इस संसार की लैब में
जैसे ही आता है , बदल जाता है |हमारे घर---परिवार और पास---पड़ोस भी
अनौपचारिक तौर पर अंधविश्वास पढ़ाने का काम रात---दिन करते रहते हैं और
उसे अपनी संस्कृति भी बतलाते हैं |संस्कृति उनके लिए एक ठहरी हुई कोई धारणा
होती है | ऐसे वातावरण के बीच विद्यार्थी पलता और बड़ा होता है | हमारे
पर्व---त्यौहार आदि भी मन को ऐसा बना देते हैं कि विज्ञान की बातें सिर्फ
बातें होकर रह जाती हैं वे व्यवहार में नहीं उतर पाती |हमको यह गलतफहमी
नहीं होनी चाहिए कि छात्र हर बात स्कूल से ही पढ़कर सीखता है | वह स्कूल में
सिर्फ अक्षर ज्ञान लेता है लिखना---पढ़ना और थोड़ा--बहुत चीजों को जानना
सीखता है | कई बार तो स्वयं अध्यापक नहीं जानते कि हमारे आपसी रिश्तों का
निर्माण किन आधारों पर कैसे हुआ है |वे भाग्यवाद का टोकरा अपने सर पर उठाये
रहते हैं |जिसकी वजह से वे स्वयं अवैज्ञानिकता का भार ढोते रहते हैं
|दूसरे ,हमारे जीवन में इतनी अपूर्णताएं ,अनिश्चितताएं और संयोग हैं कि
जिनसे अवैज्ञानिकता पनपते देर नहीं लगती |- फिर, विज्ञान विषय अपने आप
वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं बनाता उसके लिए अलग से प्रयत्न करना पड़ता है
|वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए कतई जरूरी नहीं है कि विज्ञान ही पढ़ा जाय
|उसके लिए जरूरी है जीवन के गहरे अनुभव और उनसे प्राप्त नज़रिया | ब्रूनो तो
पादरी बनने गया था और धर्म संबंधी किताबें पढ़ते पढ़ते वैज्ञानिक बन गया |
महान शहीद भगत सिंह भी पहले वैसे नहीं थे जैसे बाद में अपने जीवनानुभवों
से बन गये |
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