लेकिन
लोक व्यवहार में अक्सर लोग इसको एक सिद्धांत की तरह से पेश करते हैं और
अपने दंडविधान का हर जगह पर औचित्य ठहरा देते हैं क्योंकि यह राम के मुख से
कहलवाया गया आप्त कथन है |यहाँ या तो तुलसी की भाषा गच्चा खा गयी है या
उनका सिद्धांत | बीति की तुक मिलाने के लिए कदाचित प्रीति शब्द का प्रयोग
हो गया |इससे भय और प्रेम का सम्बन्ध स्थापित हुआ जबकि बात सिर्फ काम होने
की थी |रास्ता देने की थी | तब इसे सन्दर्भ से काटकर प्रयोग नहीं किया जा
सकता था |बात तब कुछ इस तरह से होती -------बिनय न मानत जलधि जड, बीते
कितने याम |बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न काम ||------यदि यही भाव मुक्त
छंद में व्यक्त किया जाता तो प्रीत शब्द का प्रयोग कदापि नहीं किया जाता ,
इस जगह पर कोई और शब्द होता |क्योंकि जो प्रीत भय से होगी वह प्रीत नहीं रह
जायगी |प्रीत स्वाधीन भावों की कोटि में आने वाला सुखदाई भाव है जबकि भय
स्वयं में दुखदायी है | प्रेम दोनों पक्षों के स्तरों पर स्वाधीन होने को
प्रमाणित करता है |इसका उदाहरण है श्री--कृष्ण और गोपियों के बीच का प्रेम
जहां वे सभी तरह के बंधनों से मुक्त हैं | जहां बंधन है वहाँ भय भी है
|लेकिन यहाँ भय और प्रेम का सम्बन्ध स्थापित कर दिए जाने से सारा गड़बड़झाला
हुआ |यही नहीं तुलसी की और भी कई चौपाइयां हैं जिनका लोग अपने अनुचित
व्यवहार का औचित्य ठहराने के लिए एक मिसाल के तौर पर इस्तेमाल करते हैं
|यदि राम के अलावा अन्य किसी पात्र के मुख से यह बात कहलवायी गयी होती तो
शायद लोकोक्ति की तरह प्रयुक्त नहीं होती |कहलवाई गयी बात के सन्दर्भ अलग
हो सकते हैं किन्तु राम के मुख से कहलाई गयी बात का अपना अर्थ और महत्त्व
होता है |यह अब समाज में एक कहावत या सिद्धांत की तरह प्रयुक्त होती है
अतः इसको खोलना बहुत जरूरी है | वैसे ही हिंदी जाति न जाने कितने कितने
गलत---सलत कहावत---मुहावरों का बोझ अपने मन पर लादे हुए है |जब एक गुंडा भी
इस कथन के माध्यम से अपने व्यवहार का औचित्य कायम करता है तो वहाँ सारा
संदर्भ---प्रसंग लुप्त हो जाता है और यह कथन निरपेक्ष अर्थ देने लगता है
|जैसे लाख कोशिश करने पर भी लोग विभीषण को घर का भेदी ही मानते हैं |तुलसी
उसे एक मूल्यधर्मी भक्त की तरह से पेश करते हैं किन्तु लोक व्यवहार में
उसे कौन मानता है ?उनके लिए तो विभीषण घर का भेदी है ?
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