इतना तो मुझे मालूम है कि जब प्रेम चंद गांधी बहुत बड़े .'मार्क्सवादी' थे और प्रगतिशील लेखक संघ के बड़े नेता नहीं बने थे तब विजेंद्र की ' कृति ओर 'के सम्पादक मंडल से बाहर कर दिए गए थे और इससे वे बेहद नाराज हुए थे | तभी से यह सब चल रहा है | यह और कुछ नहीं उनकी निजी और भीतर की गहरी पीड़ा है | विजेंद्र के बारे में जहां तक मैं जानता हूँ अपनी विचारधारा और आचरण में आवारा पूंजी के समर्थकों से लाख गुना बेहतर हैं |यह फेस बुक का दुरूपयोग है कि जो व्यक्ति फेस बुक पर है ही नहीं उसका इस तरह चरित्र - हनन करना | यह बेहद दुखद और निंदनीय है |
Tuesday, 31 January 2012
Monday, 30 January 2012
आवारा पूंजी के कुलीनता-वादी खेल को 'साहित्योत्सव' नाम देना वैसा ही है जैसे गधे को बाघ की खाल उढा-कर बाघ- बाघ चिल्लाना | बात भाषा की उतनी न हो तब भी एक औपनिवेशिक अवस्था की दुर्दशा से गुजरे देश की जनता के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह उन सवालों को पूछे , जो उसे बार बार गुलामी के दिनों की याद दिलाते हैं |निस्संदेह , ज्ञान के मामले में आज अंगरेजी बेहद जरूरी है और बाज़ार की ताकतों से मुकाबला करने के लिए भी , किन्तु वह यदि हमारी देशी भाषाओं के सिर पर चढ़-कर आती है तो किसी भी स्थिति में वरेण्य नहीं हो सकती | शेखर कपूर की आत्मा से इसके लिए अनजाने एक मुहावरा सा निकल कर आया है --- जिसमें उन्होंने इसे "साहित्य की आवारागर्दी " बतलाया है |कैसी विडम्बना है कि इसमें एक जमाने के 'प्रगतिशील' और ' जनवादी' कहे जाने वाले लोग भी शामिल हुए ?
Sunday, 29 January 2012
Saturday, 28 January 2012
मैं कविता में मिठास का विरोधी नहीं हूँ| जिनको मेरे बारे में पता है कि मुझे न पढने की बीमारी है , ऐसे लोग अपनी दुकान अपने पास रखें और उन लोगों से बातें करें जो उनकी कवितायें पढ़ते हैं |व्यर्थ में फटे में पाँव क्यों देते हैं ? जिनको आज की कविता में तेजी से उभरता गडमड्ड कलावाद नज़र नहीं आता और जो लोग केवल अपनी ही कविता के पारखी हैं ,ऐसे लोगों से मैं बचने की कोशिश करता हूँ | मेरा तात्पर्य विरुद्धों के सामंजस्य से था , जो आज की कविता में कमजोर पडा है और इकहरेपन का यांत्रिक तनाव ज्यादा दिखाई देता है| द्वंद्वात्मक तनाव जीवनानुभवों से आता है , मात्र किताबी ज्ञान से नहीं | जीवनानुभवों की तीव्रता केवल उन लोकधर्मी युवा कविताओं में आरही है जो ठेठ जीवनानुभवों के संपर्क में हैं | इनमें ताजगी और सहजता जैसे काव्य-गुण खूब हैं और यह मध्यवर्गीय सीमाओं का अतिक्रमण कर कविता के विस्तृत जीवन-प्रांगणों के रू-ब-रू कराने वाली है लेकिन यहाँ भी अभी अपने समय का वास्तविक तनाव कमजोर स्थिति में है | जब तक उत्तर- आधुनिक विचारधारा द्वारा फैलाई जा रही भ्रांतियों के विमर्शजन्य खंडित "दर्शन" की पहेलियों से मुक्त होकर सीधे- सीधे मेहनतकश के समग्र दर्शन की रोशनी में चीजों को फिर से नहीं देखने का अभ्यास किया जायगा तब तक मिठास और कडवाहट के तनाव की वह अभिव्यक्ति नहीं होगी , जो हर युग में बड़ी और बेहतरीन कविता के लिए जरूरी होती है | अच्छी कविता आज भी खूब लिखी जा रही है |मैं अपनी समझ और एक बेहद सामान्य कविता- पाठक की हैसियत से अपनी बात कह रहा हूँ |
Friday, 27 January 2012
Thursday, 26 January 2012
जहां तक अच्छे सृजन का सवाल है , मुक्तिबोध और ६ शताब्दी पहले कबीर एवं आधुनिक कवि निराला की कविता में से समय का तनाव निकल जाए तो उसका वह महत्त्व नहीं रहेगा जो आज स्थापित है | आज लिखी जा रही कविताओं की सबसे बड़ी कमजोरी ही यही है कि वे समय के तनाव को दरकिनार कर रही हैं |आज बहुत मीठी मीठी कवितायें लिखे जाने का रिवाज चल पडा है और उसको लगातार सराहने वालों की तादाद भी बढ़ती जा रही है |
शिक्षक , यदि रचनात्मक है तो उसे आनंद-भाव और तनाव में तालमेल बिठाकर चलना होगा ,अन्यथा विद्या आज की तरह मात्र अर्थकरी होकर रह जायेगी | विद्या की प्रकृति में आनंद-भाव अन्तर-निहित रहता है बशर्ते कि उसकी मूल प्रकृति को अध्यापक हृदयगम कर ले | आज सभ्यता का दबाव इतना अधिक हो गया है कि अध्यापक को अपना दायित्व -बोध ही अपवाद-स्वरुप हो पाता है | वह व्यवस्था-जन्य निर्देशों के तंत्र में फंसकर अपना असली दायित्व भूल जाता है | उस हनुमान के लिए एक जामवंत की जरूरत हमेशा बनी रहती है , जब कि जरूरत यह है कि वह स्वयम हनुमान बने | हनुमान रामायण का एक ऐसा चरित्र है जो तनाव और आनद का सबसे बड़ा उदाहरण है |
Tuesday, 24 January 2012
जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता है , वैसे वैसे जिन्दगी में से गीतात्मकता का क्षरण होता जाता है | इसलिए कविगण अपने भीतर के गीत को बचाने का प्रयास करते हैं |लेकिन जो कवि सभ्यता के दबाव से ऊपर नहीं उठ पाते ,वे कविता में गीतात्मकता को ला पाने में विफल रहते हैं |कवि की जिन्दगी में ही गीत का रहना जरूरी होता है |इसे ऊपर से आरोपित कर पाना असंभव होता है |इसी वजह से कई कवि गीत-विरोधी रुख अख्तियार कर लेते हैं |
Monday, 23 January 2012
इन दिनों गीत-सारंगी बज रही है |गीत का अपना आनंद और यथार्थ-बोधक भूमिका होती है तथा कवि को लय का अभ्यास बना रहता है | प्रगीत-परकता कविता का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है |गीत जीवन-सरिता को सलिल-मयी बना देता है और पाठक के अनुकूल बनाता है बशर्ते कि गीतकार की अधुनातन जीवन-दर्शन में गहरी एवं अद्यतन पैठ हो | गीत -रचना में पिछड़ी मानसिकता का ख़तरा सबसे ज्यादा रहता है या संवेदना के अमूर्तन और पिष्ट-पेषण का |सजग - सावधान गीतकार अपने समय की कविता से गहरी दोस्ती गांठता है तभी जाकर वह अपने समय की गीत रचना में सफल हो पाता है | गीत ज्ञानात्मक संवेदना की भूमिका अदा करता है जबकि कविता में संवेदनात्मक ज्ञान की भूमिका पर ज्यादा बल रहता है |सूर और मीरा तो अकेले गीत की ताकत से ही सूरज की तरह चमक रहे हैं |
जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता है , वैसे वैसे जिन्दगी में से गीतात्मकता का क्षरण होता जाता है | इसलिए कविगण अपने भीतर के गीत को बचाने का प्रयास करते हैं |लेकिन जो कवि सभ्यता के दबाव से ऊपर नहीं उठ पाते ,वे कविता में गीतात्मकता को ला पाने में विफल रहते हैं |कवि की जिन्दगी में ही गीत का रहना जरूरी होता है |इसे ऊपर से आरोपित कर पाना असंभव होता है |इसी वजह से कई कवि गीत-विरोधी रुख अख्तियार कर लेते हैं |
आनंद-भाव के बिना कला-सृजन संभव नहीं होता| यहाँ तनाव का भी अपना आनंद होता है | मुक्तिबोध जैसे बेहद गंभीर विचारक- दार्शनिक और सभ्यता समीक्षक कवि की कविताओं से गुजरिये तो प्रगीतात्मकता का गहरा अहसास होता चलता है | जिसे गीतात्मकता का अभ्यास नहीं , उसकी कविता सूखी नदी की तरह होगी |
जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता है , वैसे वैसे जिन्दगी में से गीतात्मकता का क्षरण होता जाता है | इसलिए कविगण अपने भीतर के गीत को बचाने का प्रयास करते हैं |लेकिन जो कवि सभ्यता के दबाव से ऊपर नहीं उठ पाते ,वे कविता में गीतात्मकता को ला पाने में विफल रहते हैं |कवि की जिन्दगी में ही गीत का रहना जरूरी होता है |इसे ऊपर से आरोपित कर पाना असंभव होता है |इसी वजह से कई कवि गीत-विरोधी रुख अख्तियार कर लेते हैं |
आनंद-भाव के बिना कला-सृजन संभव नहीं होता| यहाँ तनाव का भी अपना आनंद होता है | मुक्तिबोध जैसे बेहद गंभीर विचारक- दार्शनिक और सभ्यता समीक्षक कवि की कविताओं से गुजरिये तो प्रगीतात्मकता का गहरा अहसास होता चलता है | जिसे गीतात्मकता का अभ्यास नहीं , उसकी कविता सूखी नदी की तरह होगी |
Friday, 20 January 2012
एक गीत
अबकी
जब मैं
अपने गाँव गया ,
कीकर की इक शाख पे
सहमी---- -रोती मिली
----बया |
सूनी-सूनी चौपालें सब
अगिहाने रीते ,
हंसी-ठिठोली मस्ती , फागुन
कितने दिन बीते |
जात-पांत के सीढी-क्रम में
कुछ भी नहीं
----नया |
भूख, गरीबी , दैन्य ,पलायन
कूड़े की ढेरी ,
भीतर-भीतर बजती
सबके मन में रणभेरी |
जीती बेशर्मी, पंचायत
हारी शरम-हया |
मोटे पेट
जरूर मिले कुछ ,
सड़कें भी पक्की ,
उन पर चलने वाले
लेकिन
कितने पर-भक्की |
पहले जैसी
किसी ह्रदय में
देखी नहीं ------दया |
खुले पाठशालाओं जितने
दारू के ठेके ,
जैसे-तैसे कटे जिन्दगी
कुछ ले के , दे के
अपना -अपना
करम ठोकती
कमला और
----जया |
ऊँच-नीच का
भेद मिटा कुछ ,
पर , नीच से ऊँच बढ़ी |
गिरी गरीबी गड्ढे भीतर
धन की पींग चढी ,
जल-जंगल पर
कुछ लोगों ने कब्ज़ा
-----खूब किया |
अबकी
जब मैं
अपने गाँव गया ,
कीकर की इक शाख पे
सहमी---- -रोती मिली
----बया |
सूनी-सूनी चौपालें सब
अगिहाने रीते ,
हंसी-ठिठोली मस्ती , फागुन
कितने दिन बीते |
जात-पांत के सीढी-क्रम में
कुछ भी नहीं
----नया |
भूख, गरीबी , दैन्य ,पलायन
कूड़े की ढेरी ,
भीतर-भीतर बजती
सबके मन में रणभेरी |
जीती बेशर्मी, पंचायत
हारी शरम-हया |
मोटे पेट
जरूर मिले कुछ ,
सड़कें भी पक्की ,
उन पर चलने वाले
लेकिन
कितने पर-भक्की |
पहले जैसी
किसी ह्रदय में
देखी नहीं ------दया |
खुले पाठशालाओं जितने
दारू के ठेके ,
जैसे-तैसे कटे जिन्दगी
कुछ ले के , दे के
अपना -अपना
करम ठोकती
कमला और
----जया |
ऊँच-नीच का
भेद मिटा कुछ ,
पर , नीच से ऊँच बढ़ी |
गिरी गरीबी गड्ढे भीतर
धन की पींग चढी ,
जल-जंगल पर
कुछ लोगों ने कब्ज़ा
-----खूब किया |
Thursday, 19 January 2012
प्रगतिशील आन्दोलन के कल और आज पर ३१ जनवरी को दिल्ली विश्वविद्यालय में चर्चा होगी |इस आन्दोलन की अवस्था ७५ वर्ष हो चुकी है |हम देख रहे हैं कि इस विखंडन के दौर में प्रगतिशील नैतिकता का तेजी से विखंडन हुआ है और अवसरवाद ने प्रगतिशीलता की जड़ों पर सबसे ज्यादा मट्ठा डाला है | समग्रता और विशिष्टता के द्वंद्वात्मक रिश्ते को ध्यान में रखकर पहले जो विमर्श हुआ करते थे , वे स्त्री और दलित जैसे खंड विमर्शों में विखंडित होकर 'उत्तर-आधुनिकता ' की सेवा में ज्यादा लगे हुए हैं और वाहवाही लूट रहे एवं इनाम पा रहे हैं |स्त्री और दलित विमर्श बेहद जरूरी हैं किन्तु समग्र वर्ग-चेतना और वर्ग- दृष्टि की कीमत पर नहीं |हमारा आज प्रगतिशील नैतिकता को बहुत कम जानता है | मुक्तिबोध के शब्दों में ---"सबको अपनी -अपनी पडी हुई है /और चढ़ने की सीढियां ही सर चढी हुई हैं /" फिर भी अभी बहुत कुछ बाकी है उसे बचाकर हम जहां-जहां हैं वहाँ आगे बढ़ाना है |
निमंत्रण के लिए आभार ,प्रगतिशील आन्दोलन की टूटन, बिखराव ,भटकाव और अवसरवाद को रोकने के लिए ऐसे कार्यक्रम पूरे देश में होने जरूरी हैं | आवारा पूंजी सर्वग्रासी रूप धारण कर चुकी है | लेखक भी इससे बच नहीं पा रहा है |प्रगतिशील नैतिकता लगभग दम तोड़ने को है |लेकिन अभी "मही वीर विहीन" नहीं हुई है | मेरी हार्दिक शुभकामनाएं
Wednesday, 18 January 2012
संगीत और कविता की प्रकृति ---------
मित्रवर, यह संकट तब उत्पन्न होता है जब हम कलाओं को मात्र विचारधारा में घटित करके देखते हैं |यही कारण है कि कलाओं के मामले में एक साथ दो स्थापनाएं करते हैं |उसे ' अनुभूति' भी मानते हैं और 'निरर्थक' भी नहीं मानना चाहते | कलाओं की उत्पत्ति कहीं मनुष्य की आदिमता से जुडी हुई है ,जीवन-दृष्टि और विचारधारा बाद की बातें हैं |इस मामले में कविता अन्य कलाओं से बहुत आगे निकल कर भाषा और सभ्यता -विकास के साथ अर्थधर्मी होती गयी है , उसकी तुलना में अन्य कलाएं 'अनुभूति' के ज्यादा नजदीक हैं | सभी कलाओं की प्रकृति एक जैसी नहीं है | अनुभूतिगत साम्य देखा जा सकता है | इनमें भी संगीत और नृत्य में आदिमता सबसे ज्यादा है |इसीलिये यहाँ अर्थबोध से ज्यादा अनुभूति पर बल रहता है |अन्यथा संगीत में जितना निरर्थक शब्दों में "नाद की अनुभूति' व्यक्त की जाती है उतनी नहीं होती |
अनुभूति और अर्थ-बोध में आत्यंतिक विरोध नहीं है |विकास की प्रक्रिया में बहुत कुछ बदलता' और परिष्कृत होता है तभी तो संवेदना के साथ ग्यानात्मक्ता आती है | मुक्तिबोध ,इसी वजह से ज्ञान के साथ संवेदना और संवेदना के साथ ज्ञान को जोड़ते हैं और इनका द्वंद्वात्मक रिश्ता मानते हैं | हाँ, संगीत अपनी गति में रूप का जितना विकास करता है उतना अपनी अंतर्वस्तु का नहीं |कई बार हम कविता के प्रतिमानों से जब संगीत आदि अन्य कलाओं को जांचने लगते हैं तो दुविधा उत्पन्न होती है | कदाचित, यही वजह है कि हम संगीत में वही सब कुछ खोजने निकल पड़ते हैं जो कविता में खोजते हैं | आपने बहुत अच्छी बहस कराई ,बहुत आनंद आया और कुछ बातें स्वतः स्फूर्त ढंग से आई |
मित्रवर, यह संकट तब उत्पन्न होता है जब हम कलाओं को मात्र विचारधारा में घटित करके देखते हैं |यही कारण है कि कलाओं के मामले में एक साथ दो स्थापनाएं करते हैं |उसे ' अनुभूति' भी मानते हैं और 'निरर्थक' भी नहीं मानना चाहते | कलाओं की उत्पत्ति कहीं मनुष्य की आदिमता से जुडी हुई है ,जीवन-दृष्टि और विचारधारा बाद की बातें हैं |इस मामले में कविता अन्य कलाओं से बहुत आगे निकल कर भाषा और सभ्यता -विकास के साथ अर्थधर्मी होती गयी है , उसकी तुलना में अन्य कलाएं 'अनुभूति' के ज्यादा नजदीक हैं | सभी कलाओं की प्रकृति एक जैसी नहीं है | अनुभूतिगत साम्य देखा जा सकता है | इनमें भी संगीत और नृत्य में आदिमता सबसे ज्यादा है |इसीलिये यहाँ अर्थबोध से ज्यादा अनुभूति पर बल रहता है |अन्यथा संगीत में जितना निरर्थक शब्दों में "नाद की अनुभूति' व्यक्त की जाती है उतनी नहीं होती |
अनुभूति और अर्थ-बोध में आत्यंतिक विरोध नहीं है |विकास की प्रक्रिया में बहुत कुछ बदलता' और परिष्कृत होता है तभी तो संवेदना के साथ ग्यानात्मक्ता आती है | मुक्तिबोध ,इसी वजह से ज्ञान के साथ संवेदना और संवेदना के साथ ज्ञान को जोड़ते हैं और इनका द्वंद्वात्मक रिश्ता मानते हैं | हाँ, संगीत अपनी गति में रूप का जितना विकास करता है उतना अपनी अंतर्वस्तु का नहीं |कई बार हम कविता के प्रतिमानों से जब संगीत आदि अन्य कलाओं को जांचने लगते हैं तो दुविधा उत्पन्न होती है | कदाचित, यही वजह है कि हम संगीत में वही सब कुछ खोजने निकल पड़ते हैं जो कविता में खोजते हैं | आपने बहुत अच्छी बहस कराई ,बहुत आनंद आया और कुछ बातें स्वतः स्फूर्त ढंग से आई |
Tuesday, 17 January 2012
संगीत 'शब्द -विधायिनी' कला है जबकि साहित्य 'शब्दार्थ-विधायिनी' | संगीत, कविता जितना अर्थप्रधान नहीं होता , यही वजह है की साहित्य में जितनी क्षिप्रता से ' आधुनिक बोध' आ जाता है , संगीत में नहीं आ पाता | संगीत की प्रकृति पुरातन-धर्मी होने की यही वजह है |संगीत और श्रुति का रिश्ता वही नहीं होता , जो कविता से निर्मित होता है | 'कोलाबेरी -डी ' और उसकी कर्नासक्त धुन श्रोता को अपनी सम्मोहन कला में इस तरह बाँध लेती है की हमारा मन अर्थ-बोध के किसी भी आग्रह को बिसार देता है | जिस 'शास्त्रीय' संगीत पर लोग झूम -झूम उठते हैं , उसकी शब्दावलि या तो भक्तिपरक होती है या ठेठ सामंती |फिर भी हमारे कान उसे "नाद की कला "मानकर उसका लुत्फ़ उठाते हैं |संगीत वैसे भी सबसे पुरातन और आदिम कला है |वह जीवन -धर्म से ज्यादा कला-धर्म का निर्वाह करती है | देख लीजिये आदिमता जिन भाषाओं में ज्यादा है ,उनमें संगीतात्मकता भी ज्यादा है |जैसे-जैसे भाषाएँ अर्थ-सम्पन्न-सभ्यता की और अग्रसर होती हैं अपनी संगीतात्मकता खोती जाती हैं | खडी बोली की तुलना में ब्रज,अवधी, भोजपुरी उपभाषाएँ ज्यादा संगीतात्मक हैं |
Monday, 16 January 2012
एक ऐसे साथी से जिसके साथ धोखा हुआ
ये आपके मित्र थे ही नहीं , यह आपकी नासमझी है कि आपने जो भी फेसबुक पर आ गया , उसी को मित्र मान लिया | जाने कैसे-कैसे लोग हैं इस दुनिया में और फिर इस आभासी दुनिया में कितनी ठगी और कितना अपनापन है , आप क्या जानें ? यह अधिकाँश मात्रा में आत्म-मुग्ध और आत्म-प्रचारकों का एक ऐसा समूह है जो अपनी एक असम्बद्ध दुनिया बसा लेता है | अपवाद हर जगह हैं | यदि आपके चहेते आपसे वादा खिलाफी कर रहे हैं तो कबीर की इन पंक्तियों को याद करिए और' 'नेकी कर कुए में डाल ' -को समझ कर सब कुछ भूल जाइए | कबीर की बात ----"कबिरा आप ठगाइये , और न ठगिये कोय | आप ठगे सुख होत है , और ठगे दुःख होय |"
ये आपके मित्र थे ही नहीं , यह आपकी नासमझी है कि आपने जो भी फेसबुक पर आ गया , उसी को मित्र मान लिया | जाने कैसे-कैसे लोग हैं इस दुनिया में और फिर इस आभासी दुनिया में कितनी ठगी और कितना अपनापन है , आप क्या जानें ? यह अधिकाँश मात्रा में आत्म-मुग्ध और आत्म-प्रचारकों का एक ऐसा समूह है जो अपनी एक असम्बद्ध दुनिया बसा लेता है | अपवाद हर जगह हैं | यदि आपके चहेते आपसे वादा खिलाफी कर रहे हैं तो कबीर की इन पंक्तियों को याद करिए और' 'नेकी कर कुए में डाल ' -को समझ कर सब कुछ भूल जाइए | कबीर की बात ----"कबिरा आप ठगाइये , और न ठगिये कोय | आप ठगे सुख होत है , और ठगे दुःख होय |"
Sunday, 15 January 2012
मैं गया हूँ जगदलपुर दो बार | आदिवासियों का घर था एक जमाने में ,अब कुछ दूर हैं क्यों कि उनकी जगहों पर नए शहर बस रहे हैं | सीरासार चौक है यहाँ जहां दशहरे के अद्भुत आदिवासी विराट लोकोत्सव में बड़े छोटे रथों का उपयोग होता है | आदिवासियों की "बस्तर लोक-कला " से यहाँ निकटता से परिचय होता है |प्राकृतिक सौन्दर्य कोष का अवलोकन कर आप ठगे से रह जायेंगे | कोटमसर गुफा , चित्रकोट जल प्रपात देखकर आप यहाँ की प्रकृति से आँख उठा नहीं पायेंगे | फिर सूत्र- सम्मान का आयोजन करने वाले विजय सिंह यहाँ "बंद टाकीज" के सामने उपस्थित मिलेंगे | और भी बहुत कुछ है यहाँ , मिलनसार देशज प्रकृति वाले लोग | देव्दीप जी अवश्य जाईये ------अवसि देखिये देखन जोगू |
मेरी गलती
मेरी गलती
सिर्फ इतनी
कि मैं
लिपट गयी
पेड़ से
लता की तरह
पेड़ ,लता से
जैसे |
हमारा निर्णय था
अपना |
नदी-किनारों के
बीच , बही मैं
उच्छल जल की तरह |
मेरी गलती
सिर्फ इतनी
कि मैं
बहना चाहती थी
वसंती हवा की तरह
मैं भाग लेना चाहती थी
वाद के बाद
होने वाले
विवाद में ,
चाहती थी बदलना
दुनिया को
संवाद में |
मेरा निर्णय
है कि आगे भी
करती रहूँगी
इस तरह की गलतियां |
मेरी गलती
सिर्फ इतनी
कि मैं
लिपट गयी
पेड़ से
लता की तरह
पेड़ ,लता से
जैसे |
हमारा निर्णय था
अपना |
नदी-किनारों के
बीच , बही मैं
उच्छल जल की तरह |
मेरी गलती
सिर्फ इतनी
कि मैं
बहना चाहती थी
वसंती हवा की तरह
मैं भाग लेना चाहती थी
वाद के बाद
होने वाले
विवाद में ,
चाहती थी बदलना
दुनिया को
संवाद में |
मेरा निर्णय
है कि आगे भी
करती रहूँगी
इस तरह की गलतियां |
Saturday, 14 January 2012
कविताएँ, वास्तव में कविताएँ ,अपने अनुभवों से सृजित , नकलीपन कतई नहीं ,नई जमीन तोड़नेवाली कवितायेँ , निडर और बेलाग शैली में स्वयं को अभिव्यक्त करती और अपने समय और समाज से सम्बद्ध , स्त्री और पुरुष के चालू रिश्तों को बेबाकी से उकेरती , भीतर के पाखंड को उद्घाटित करती , परिपक्वता का प्रमाण देती ये कवितायें एक साँस में पढ़ ली गयी कविताएँ | गद्य में लय का कोई अवरोध नहीं , मुक्त छंद का बेहद कौशल के साथ निर्वहन करती कवितायेँ और क्या कहूँ कहते ही जाने को मन कर रहा है | कथन -प्रवाह रुक ही नहीं पा रहा है | मेरी बधाई पंहुचाएं शुभम श्री को | विद्यार्थी जीवन पर इतनी बेहतरीन कवितायेँ पढने को नहीं मिली |
Friday, 13 January 2012
तिल चौथ
तिल चौथ में
अकेली है
एक स्त्री
ओढ़नी ओढ़े
लथपथ अंदाज
चूड़ियों का ,
अकेली वह
कई जगह |
रंग इतना
गहरा कि
छुटाए छूटता नहीं
डर की खाई
गहरी इतनी
कि सहस्राब्दियों के
भय-पुंज में
दुबकी चूही सी ,
जिन्दगी का
मिथ्या-कवच
निर्मूल |
एक भयभीत समाज
इसके बिना
रोजमर्रा की
जिन्दगी
नहीं कर सकता
बसर ,
जैसे लालची लोग
कभी
एक बेहतर
समाज
बनाने की
नहीं कर सकते
कल्पना तक |
तिल चौथ में
अकेली है
एक स्त्री
ओढ़नी ओढ़े
लथपथ अंदाज
चूड़ियों का ,
अकेली वह
कई जगह |
रंग इतना
गहरा कि
छुटाए छूटता नहीं
डर की खाई
गहरी इतनी
कि सहस्राब्दियों के
भय-पुंज में
दुबकी चूही सी ,
जिन्दगी का
मिथ्या-कवच
निर्मूल |
एक भयभीत समाज
इसके बिना
रोजमर्रा की
जिन्दगी
नहीं कर सकता
बसर ,
जैसे लालची लोग
कभी
एक बेहतर
समाज
बनाने की
नहीं कर सकते
कल्पना तक |
जब देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी जा रही थी तब भी सभी लोग एक जैसे नहीं थे |राजा -महाराजा ,नबाव -जागीरदार, सामंत , धन्ना-सेठ , रायबहादुर , राजा, सर आदि खिताब पाए लोग औपनिवेशिक शासन के विरोधी नहीं थे |ये कुछ ही लोग थे जिन्होंने आजादी की अलख जगाई थी और अपने प्राणों तक को डाव पर लगा दिया था | प्रेरक लोग हमेशा से अल्पसंख्यक रहे हैं और बहुसंख्यक वैसे ही , जैसे आप बतला रहे हैं | सूरज तो अकेला ही होता है जो अन्धकार को दूर करता है |हाँ, इतना जरूर है कि इसके लिए कुछ त्याग आदि का कष्ट उठाना पड़ता है |
बन्धुवर , वह औद्योगिक पूंजी का ज़माना था ,जब मजदूर की पगार का शोषण और उससे अतिरिक्त घंटे काम कराकर 'अतिरिक्त पूंजी का ' जुगाड़ किया जाता था | इसी से पूंजी बढ़ती है और अतिरिक्त ताकत से प्रशासन -सत्ता से अपना गठजोड़ बिठा लेती है |प्रलोभन और भेद-युक्तियाँ उसके सबसे बड़े अस्त्र होते हैं |यही तो संघर्ष है | सुकोमल सेन की किताब बात के मर्म तक पंहुचाने वाली होगी | अब औद्योगिक पूंजी का स्थान 'आवारा पूंजी' ने ले लिया है |
Thursday, 12 January 2012
विवेकानंद के आधुनिक वेदांती विचारों की निर्मिति में रूसी अराजकतावादी विचारक क्रोपाटकिन के विचारों का बड़ा योगदान रहा , जिनका योगदान बाद में महान शहीद भगत सिंह की विचार -निर्माण प्रक्रिया में भी दिखाई देता है |यह अराजकतावादी चिंतन का ही असर है कि विवेकानंद ने सार्वजनिक तौर घोषणा की ------"मैं समाजवादी हूँ " और धर्म से पहले " भूख " के सवाल को हल करने की बात रखी |
आपकी बातें सही हैं |इसके बावजूद , सही रास्ता अपने नैतिक बोध को बचाए रखने की गलियों से होकर जाता है |सामन्यतया कहा जाता है कि समाज क्रान्ति करता है किन्तु अब इसके साथ यह बात जोड़े जाने की जरूरत आ गयी है कि समाज नहीं , नैतिक समाज क्रान्ति करता है |रूसी क्रान्ति के बाद बनी समाजवादी व्यवस्था का विघटन, समाजवादी नैतिक बोध के क्षरण होते चले जाने की वजह से भी हुआ |
मुझे लिखते हुए खुशी है विवेकान्द हमारे अलवर (राजस्थान ) भी १८९१ में आये थे 'जब वे भारत -भ्रमण कर रहे थे | यहाँ २ माह ठहरकर अपनी बातों से लोगों को इतना प्रभावित किया की स्वयम यहाँ के राजा मंगल सिंह उनका प्रवचन सुनने के लिए उनकी विचार-सभा में आये थे |सामान्यतया धर्म-मजहबों के मामलों में आधुनिक विचार नहीं आने दिया जाता , विवेकानन्द की खूबी है की उन्होंने वेदान्त को आधुनिक आवश्यकता के सन्दर्भों में व्याख्यायित किया था |
हिन्दी के उन्ही अध्यापकों पर गुस्सा निकले तो ज्यादा संगत होगा ,जो साहित्य को करियर माध्यम बनाते और पुरस्कारों के लिए 'सृजन' करते हैं| ऐसे लोग अशिक्षकों में भी हो सकते हैं | दरअसल यह नैतिकता से जुडा सवाल है और नैतिकता का क्षरण समाज के सभी स्तरों पर बहुत तेजी से हुआ है |इन दिनों जोड़-तोड़ करके सफलता हासिल कर लेने वाले लोगों को कुछ ज्यादा ही इज्जत बख्शी जाने लगी है |इस सवाल पर विचार करते हुए हमें इन भीतरी बातों को समझने की जरूरत है, न कि एक दूसरे पर दोषारोपण करने की | समझदारी से ही बात के भीतरी अटकाव को समझा जा सकता है |व्यवस्था में आदमी बाहर से ढका हुआ है जबकि भीतर से नंगा हो चुका है |
Wednesday, 11 January 2012
पहाड़ हमारी आत्मा का वह स्थल है जहां हृदय और मस्तिष्क एक बिंदु पर मिलते हैं |कालिदास ने इसी वजह से हिमालय को नगाधिराज कहते हुए पृथ्वी पर मानदंड की तरह स्थित बतलाया | अल्मोड़ा - कौसानी के अनुभवों का बयान करने के लिए शब्द नहीं हैं | पुनेठा जी और राजीव पन्त के अहैतुकी व्यवहार ने मन को मोहपाश में बाँध लिया |कौसानी में प्रकृति के प्यारे कवि पन्त की जन्म -स्थली और गांधी जी के अनासक्ति-आश्रम के साथ देवदारू तरुओं की ऊंचाई के बीच लगातार उच्चता की त्रिवेणी मन में प्रवाहित होने लगती है |यह भी अनुभव किया कि पहाडी जीवन में अस्तित्त्व-गत सक्रियता वहां की जरूरत बन जाती है |
Monday, 9 January 2012
हमें जानना होगा कि यह समय उत्तर-आधुनिक है जिसमें 'औद्योगिक पूंजी' की बड़ी भूमिका नहीं रह गयी है | सर्वत्र 'आवारा पूंजी' मारीच के कंचन -मृग की तरह विचरण कर रही है |सारा खेल उसी का है | बाज़ार -तन्त्र विखंडन-लीला में लगा हुआ है |,ज्ञानोदय और प्रबोधन की भूमिकाएं नगण्य हो गयी हैं |मीडिया से जागरूकता को विखंडित और अपदस्थ करने में मीडिया-प्रबंधक सफल हो गया है और उसकी लगाम अपने हाथ में ले ली है | पत्रकार की सापेक्ष स्वायत्तता का चीर-हरण हो चुका है |अत छोटी छोटी जगहों से लघु-पत्रकारिता के वैकल्पिक लोकतांत्रिक तन्त्र को विकसित करने की जरूरत है |जैसे स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में देशी भाषाओं में औपनिवेशिक तन्त्र विरोधी पत्रकारिता उद्भूत एवं विकसित हुई थी |पत्रकारिता की एक देशभक्तिपूर्ण परम्परा हमारे यहाँ रही है ,उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है लेकिन वह त्याग की मांग करती है |अध्ययनशीलता और त्याग-वृत्ति ही रास्ता दिखला सकती हैं |
Sunday, 8 January 2012
पहली बात यह समझनी होगी कि शिक्षा के साथ उसका पूरा तन्त्र होता है और उसके ऊपर सत्ता -धारी शासक वर्ग का नियन्त्रण होता है | शिक्षक वर्ग उसकी नौकरी करता है |उसकी स्वतन्त्रता बस इतनी सी होती है कि वह कक्षा में अपनी दृष्टि से पढ़ा सकता है किन्तु कितने अध्यापक होते हैं जो अपने समकाल और लोक-जीवन से दृष्टि प्राप्त करके अध्ययन -अध्यापन में रत रहते हैं |अत; पहली जरूरत स्वयम अध्यापक को बदलने और निरंतर बदलने की प्रक्रिया में बने रहने की होती है |अन्यथा जिस शासन की हम नौकरी बजाते हैं वह कभी बुनियादी परिवर्तन के लिए तैयार नहीं होता | बदलाव के लिए , मिली हुई सुविधाओं को छोड़ना पड़ता है |हर युग में व्यक्ति अपने समय के यथास्थितिवादी तन्त्र का तब तक गुलाम बना रहता है ,जब तक कि वह समय के यथार्थ को उसकी पूर्णता एवं समग्रता में न समझ ले |संगठित एवं समूहबद्ध होकर लगातार प्रयत्न करने की जरूरत है ,इसी प्रक्रिया से रास्ता निकलता है |
Saturday, 7 January 2012
गुलदाउदी
हँस रही
खिलखिलाकर
पूस की ठिठुरती
धूप में
गुलदाउदी
इन दिनों |
वल्कल-वसना
वनवासिनी
तन्वी
शकुन्तला
अठखेलियाँ करती
सखियों संग
जैसे |
निहारता हूँ
जब-जब
आते-जाते
खिल उठते
फूल
मन में
दाउदी के |
खिलखिलाकर
पूस की ठिठुरती
धूप में
गुलदाउदी
इन दिनों |
वल्कल-वसना
वनवासिनी
तन्वी
शकुन्तला
अठखेलियाँ करती
सखियों संग
जैसे |
निहारता हूँ
जब-जब
आते-जाते
खिल उठते
फूल
मन में
दाउदी के |
निर्मला पुतुल की कविता की खूबी है ,उसकी वह भाव-भूमि ,जो मध्यवर्गीय जीवनानुभवों का अतिक्रमण करने से बनती है इसलिए उनकी कविताओं से जो सवाल निकल कर आते हैं वे मध्यवर्गीय सीमा-बद्ध लोगों को निरुत्तर कर देते हैं |उनके शिल्प में कोई अतिरिक्त सजगता नहीं है |उनका शिल्प अंतर्वस्तु से स्वत-स्फूर्त ढंग से निकलता है |वे सहज ही नहीं ,सजग भी हैंउनके पास अनुभवों का विलक्षण कोश मौजूद है | कविता पहले से पढ़ता रहा हूँ और उनके पहले कविता-संग्रह की समीक्षा भी ,जब वह प्रकाशित हुआ था, तभी कर चुका हूँ | इस तरह की लोकधर्मी कविता हमारी निराशा को दूर करती हुई उस आसमान की और इशारा भी करती है ,जिसमें आज भी निर्मलता बाकी है |
समय
कितना -कितना
समयहीन
समय ,
गायब नाक-नक्श
चेहराविहीन |
सूरज की किरण
तमपाश में
मधुयामिनी
पुलकित
रासक्रीडामें व्यस्त
समय का दार्शनिक
भूलभुलैयों में |
महलों की
मुंडेरों को छूने की
होड़ सर्वत्र
राजनेता,सर्वोच्च शिक्षाविद
पत्रकार ,सम्पादक ,लेखक
कलाकार
गलियों-राजमार्गों पर
खड़े
पांत-दर पांत
ताकते
समयशून्य समय को |
Friday, 6 January 2012
माँ
हृदय-सिन्धु
माँ
सबसे बड़ी कविता
पृथ्वी पर |
हिमगिरि- हृदय
माँ
सबसे बड़ी कविता
धरती पर |
हृदय-गगन
माँ
सबसे बड़ी कविता
वसुंधरा पर |
पृथ्वी
सबसे बड़ी कविता
या
माँ |
माँ
सबसे बड़ी कविता
पृथ्वी पर |
हिमगिरि- हृदय
माँ
सबसे बड़ी कविता
धरती पर |
हृदय-गगन
माँ
सबसे बड़ी कविता
वसुंधरा पर |
पृथ्वी
सबसे बड़ी कविता
या
माँ |
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