पहली बात यह समझनी होगी कि शिक्षा के साथ उसका पूरा तन्त्र होता है और उसके ऊपर सत्ता -धारी शासक वर्ग का नियन्त्रण होता है | शिक्षक वर्ग उसकी नौकरी करता है |उसकी स्वतन्त्रता बस इतनी सी होती है कि वह कक्षा में अपनी दृष्टि से पढ़ा सकता है किन्तु कितने अध्यापक होते हैं जो अपने समकाल और लोक-जीवन से दृष्टि प्राप्त करके अध्ययन -अध्यापन में रत रहते हैं |अत; पहली जरूरत स्वयम अध्यापक को बदलने और निरंतर बदलने की प्रक्रिया में बने रहने की होती है |अन्यथा जिस शासन की हम नौकरी बजाते हैं वह कभी बुनियादी परिवर्तन के लिए तैयार नहीं होता | बदलाव के लिए , मिली हुई सुविधाओं को छोड़ना पड़ता है |हर युग में व्यक्ति अपने समय के यथास्थितिवादी तन्त्र का तब तक गुलाम बना रहता है ,जब तक कि वह समय के यथार्थ को उसकी पूर्णता एवं समग्रता में न समझ ले |संगठित एवं समूहबद्ध होकर लगातार प्रयत्न करने की जरूरत है ,इसी प्रक्रिया से रास्ता निकलता है |
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