Thursday, 12 January 2012

 हिन्दी  के उन्ही अध्यापकों पर गुस्सा निकले तो ज्यादा संगत होगा ,जो साहित्य को करियर माध्यम बनाते और  पुरस्कारों के लिए 'सृजन' करते हैं| ऐसे लोग अशिक्षकों  में भी हो सकते हैं | दरअसल  यह नैतिकता से जुडा सवाल है और नैतिकता का क्षरण समाज के सभी स्तरों पर बहुत तेजी से हुआ है |इन दिनों जोड़-तोड़ करके सफलता हासिल कर  लेने वाले लोगों को कुछ ज्यादा ही इज्जत बख्शी  जाने लगी है |इस सवाल पर विचार करते हुए हमें इन भीतरी बातों को समझने की जरूरत है, न कि एक दूसरे पर दोषारोपण करने की | समझदारी से ही बात के भीतरी अटकाव को समझा जा सकता है |व्यवस्था में आदमी बाहर से ढका हुआ है जबकि भीतर से नंगा हो चुका है |

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