हिन्दी के उन्ही अध्यापकों पर गुस्सा निकले तो ज्यादा संगत होगा ,जो साहित्य को करियर माध्यम बनाते और पुरस्कारों के लिए 'सृजन' करते हैं| ऐसे लोग अशिक्षकों में भी हो सकते हैं | दरअसल यह नैतिकता से जुडा सवाल है और नैतिकता का क्षरण समाज के सभी स्तरों पर बहुत तेजी से हुआ है |इन दिनों जोड़-तोड़ करके सफलता हासिल कर लेने वाले लोगों को कुछ ज्यादा ही इज्जत बख्शी जाने लगी है |इस सवाल पर विचार करते हुए हमें इन भीतरी बातों को समझने की जरूरत है, न कि एक दूसरे पर दोषारोपण करने की | समझदारी से ही बात के भीतरी अटकाव को समझा जा सकता है |व्यवस्था में आदमी बाहर से ढका हुआ है जबकि भीतर से नंगा हो चुका है |
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