संगीत 'शब्द -विधायिनी' कला है जबकि साहित्य 'शब्दार्थ-विधायिनी' | संगीत, कविता जितना अर्थप्रधान नहीं होता , यही वजह है की साहित्य में जितनी क्षिप्रता से ' आधुनिक बोध' आ जाता है , संगीत में नहीं आ पाता | संगीत की प्रकृति पुरातन-धर्मी होने की यही वजह है |संगीत और श्रुति का रिश्ता वही नहीं होता , जो कविता से निर्मित होता है | 'कोलाबेरी -डी ' और उसकी कर्नासक्त धुन श्रोता को अपनी सम्मोहन कला में इस तरह बाँध लेती है की हमारा मन अर्थ-बोध के किसी भी आग्रह को बिसार देता है | जिस 'शास्त्रीय' संगीत पर लोग झूम -झूम उठते हैं , उसकी शब्दावलि या तो भक्तिपरक होती है या ठेठ सामंती |फिर भी हमारे कान उसे "नाद की कला "मानकर उसका लुत्फ़ उठाते हैं |संगीत वैसे भी सबसे पुरातन और आदिम कला है |वह जीवन -धर्म से ज्यादा कला-धर्म का निर्वाह करती है | देख लीजिये आदिमता जिन भाषाओं में ज्यादा है ,उनमें संगीतात्मकता भी ज्यादा है |जैसे-जैसे भाषाएँ अर्थ-सम्पन्न-सभ्यता की और अग्रसर होती हैं अपनी संगीतात्मकता खोती जाती हैं | खडी बोली की तुलना में ब्रज,अवधी, भोजपुरी उपभाषाएँ ज्यादा संगीतात्मक हैं |
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