जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता है , वैसे वैसे जिन्दगी में से गीतात्मकता का क्षरण होता जाता है | इसलिए कविगण अपने भीतर के गीत को बचाने का प्रयास करते हैं |लेकिन जो कवि सभ्यता के दबाव से ऊपर नहीं उठ पाते ,वे कविता में गीतात्मकता को ला पाने में विफल रहते हैं |कवि की जिन्दगी में ही गीत का रहना जरूरी होता है |इसे ऊपर से आरोपित कर पाना असंभव होता है |इसी वजह से कई कवि गीत-विरोधी रुख अख्तियार कर लेते हैं |
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