Thursday, 19 January 2012

 प्रगतिशील आन्दोलन के कल और आज पर ३१ जनवरी को दिल्ली विश्वविद्यालय में चर्चा होगी |इस आन्दोलन की अवस्था ७५ वर्ष हो चुकी है |हम देख रहे हैं कि इस विखंडन के दौर में प्रगतिशील नैतिकता का तेजी से विखंडन हुआ है और अवसरवाद ने प्रगतिशीलता की जड़ों पर सबसे ज्यादा मट्ठा  डाला है | समग्रता और विशिष्टता के द्वंद्वात्मक रिश्ते को ध्यान में रखकर पहले जो विमर्श हुआ करते थे , वे  स्त्री और दलित जैसे   खंड विमर्शों में विखंडित होकर 'उत्तर-आधुनिकता ' की सेवा में ज्यादा लगे हुए हैं और वाहवाही लूट रहे एवं इनाम पा रहे हैं |स्त्री और दलित विमर्श बेहद जरूरी हैं किन्तु समग्र वर्ग-चेतना और वर्ग- दृष्टि की कीमत पर नहीं |हमारा आज प्रगतिशील नैतिकता को बहुत कम जानता है | मुक्तिबोध के शब्दों में ---"सबको अपनी -अपनी पडी हुई है /और चढ़ने की सीढियां ही सर चढी हुई हैं /" फिर भी अभी बहुत कुछ बाकी है उसे बचाकर हम जहां-जहां हैं वहाँ आगे बढ़ाना है |

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