एक गीत
अबकी
जब मैं
अपने गाँव गया ,
कीकर की इक शाख पे
सहमी---- -रोती मिली
----बया |
सूनी-सूनी चौपालें सब
अगिहाने रीते ,
हंसी-ठिठोली मस्ती , फागुन
कितने दिन बीते |
जात-पांत के सीढी-क्रम में
कुछ भी नहीं
----नया |
भूख, गरीबी , दैन्य ,पलायन
कूड़े की ढेरी ,
भीतर-भीतर बजती
सबके मन में रणभेरी |
जीती बेशर्मी, पंचायत
हारी शरम-हया |
मोटे पेट
जरूर मिले कुछ ,
सड़कें भी पक्की ,
उन पर चलने वाले
लेकिन
कितने पर-भक्की |
पहले जैसी
किसी ह्रदय में
देखी नहीं ------दया |
खुले पाठशालाओं जितने
दारू के ठेके ,
जैसे-तैसे कटे जिन्दगी
कुछ ले के , दे के
अपना -अपना
करम ठोकती
कमला और
----जया |
ऊँच-नीच का
भेद मिटा कुछ ,
पर , नीच से ऊँच बढ़ी |
गिरी गरीबी गड्ढे भीतर
धन की पींग चढी ,
जल-जंगल पर
कुछ लोगों ने कब्ज़ा
-----खूब किया |
अबकी
जब मैं
अपने गाँव गया ,
कीकर की इक शाख पे
सहमी---- -रोती मिली
----बया |
सूनी-सूनी चौपालें सब
अगिहाने रीते ,
हंसी-ठिठोली मस्ती , फागुन
कितने दिन बीते |
जात-पांत के सीढी-क्रम में
कुछ भी नहीं
----नया |
भूख, गरीबी , दैन्य ,पलायन
कूड़े की ढेरी ,
भीतर-भीतर बजती
सबके मन में रणभेरी |
जीती बेशर्मी, पंचायत
हारी शरम-हया |
मोटे पेट
जरूर मिले कुछ ,
सड़कें भी पक्की ,
उन पर चलने वाले
लेकिन
कितने पर-भक्की |
पहले जैसी
किसी ह्रदय में
देखी नहीं ------दया |
खुले पाठशालाओं जितने
दारू के ठेके ,
जैसे-तैसे कटे जिन्दगी
कुछ ले के , दे के
अपना -अपना
करम ठोकती
कमला और
----जया |
ऊँच-नीच का
भेद मिटा कुछ ,
पर , नीच से ऊँच बढ़ी |
गिरी गरीबी गड्ढे भीतर
धन की पींग चढी ,
जल-जंगल पर
कुछ लोगों ने कब्ज़ा
-----खूब किया |
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