Monday, 23 January 2012

इन दिनों गीत-सारंगी बज रही है |गीत का अपना आनंद और यथार्थ-बोधक भूमिका होती है तथा कवि को लय   का अभ्यास बना रहता है | प्रगीत-परकता  कविता का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है |गीत जीवन-सरिता को सलिल-मयी बना देता है और पाठक के अनुकूल बनाता है बशर्ते  कि   गीतकार की  अधुनातन जीवन-दर्शन में गहरी एवं अद्यतन पैठ हो |  गीत -रचना में पिछड़ी मानसिकता का ख़तरा सबसे ज्यादा रहता है या संवेदना के अमूर्तन और पिष्ट-पेषण  का |सजग - सावधान गीतकार अपने समय की कविता से गहरी दोस्ती गांठता है तभी जाकर वह अपने समय की गीत रचना में सफल हो पाता है |  गीत ज्ञानात्मक संवेदना की भूमिका अदा करता है जबकि कविता में संवेदनात्मक ज्ञान की भूमिका पर ज्यादा बल रहता है |सूर और मीरा तो अकेले गीत की ताकत से ही सूरज की तरह चमक रहे हैं |
                    जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता है , वैसे वैसे जिन्दगी में से गीतात्मकता का क्षरण होता जाता है | इसलिए कविगण अपने भीतर के   गीत को बचाने का प्रयास करते हैं |लेकिन जो कवि सभ्यता के दबाव से ऊपर नहीं उठ पाते ,वे कविता में गीतात्मकता को ला पाने में विफल रहते हैं |कवि की जिन्दगी में ही गीत का रहना जरूरी होता है |इसे ऊपर से आरोपित कर पाना असंभव होता है |इसी वजह से कई कवि गीत-विरोधी रुख अख्तियार कर लेते हैं |
                  आनंद-भाव के बिना कला-सृजन संभव नहीं होता| यहाँ तनाव का भी अपना आनंद होता है |    मुक्तिबोध जैसे बेहद गंभीर विचारक- दार्शनिक और सभ्यता समीक्षक कवि  की कविताओं से गुजरिये तो प्रगीतात्मकता का गहरा अहसास होता चलता है | जिसे गीतात्मकता का अभ्यास नहीं , उसकी कविता सूखी नदी की तरह होगी |

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