आवारा पूंजी के कुलीनता-वादी खेल को 'साहित्योत्सव' नाम देना वैसा ही है जैसे गधे को बाघ की खाल उढा-कर बाघ- बाघ चिल्लाना | बात भाषा की उतनी न हो तब भी एक औपनिवेशिक अवस्था की दुर्दशा से गुजरे देश की जनता के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह उन सवालों को पूछे , जो उसे बार बार गुलामी के दिनों की याद दिलाते हैं |निस्संदेह , ज्ञान के मामले में आज अंगरेजी बेहद जरूरी है और बाज़ार की ताकतों से मुकाबला करने के लिए भी , किन्तु वह यदि हमारी देशी भाषाओं के सिर पर चढ़-कर आती है तो किसी भी स्थिति में वरेण्य नहीं हो सकती | शेखर कपूर की आत्मा से इसके लिए अनजाने एक मुहावरा सा निकल कर आया है --- जिसमें उन्होंने इसे "साहित्य की आवारागर्दी " बतलाया है |कैसी विडम्बना है कि इसमें एक जमाने के 'प्रगतिशील' और ' जनवादी' कहे जाने वाले लोग भी शामिल हुए ?
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