Wednesday 18 January 2012

संगीत और कविता की प्रकृति ---------
 मित्रवर, यह संकट  तब  उत्पन्न होता है जब हम कलाओं को  मात्र विचारधारा  में  घटित करके देखते हैं |यही कारण है कि  कलाओं के मामले में एक साथ दो स्थापनाएं करते हैं |उसे ' अनुभूति' भी मानते हैं और 'निरर्थक' भी नहीं मानना चाहते | कलाओं की उत्पत्ति कहीं मनुष्य की आदिमता से जुडी हुई है ,जीवन-दृष्टि और विचारधारा बाद की बातें हैं |इस मामले में कविता अन्य कलाओं से बहुत आगे निकल कर भाषा और सभ्यता -विकास के साथ अर्थधर्मी होती गयी है , उसकी तुलना में अन्य कलाएं 'अनुभूति'  के ज्यादा नजदीक हैं | सभी कलाओं की प्रकृति एक जैसी नहीं है | अनुभूतिगत  साम्य देखा जा सकता है | इनमें भी संगीत और नृत्य में आदिमता सबसे ज्यादा है |इसीलिये यहाँ अर्थबोध से ज्यादा अनुभूति पर बल रहता है |अन्यथा संगीत में जितना निरर्थक शब्दों में "नाद की अनुभूति' व्यक्त की जाती है उतनी नहीं होती |

  अनुभूति और अर्थ-बोध में आत्यंतिक विरोध नहीं है |विकास की प्रक्रिया में बहुत कुछ बदलता'  और परिष्कृत होता है तभी तो संवेदना के साथ ग्यानात्मक्ता आती है | मुक्तिबोध ,इसी वजह से ज्ञान के  साथ  संवेदना और संवेदना के साथ ज्ञान को जोड़ते हैं और इनका द्वंद्वात्मक रिश्ता मानते हैं | हाँ, संगीत  अपनी गति में रूप का जितना विकास करता है उतना अपनी अंतर्वस्तु का नहीं |कई बार हम कविता के प्रतिमानों से जब संगीत आदि अन्य कलाओं को जांचने लगते हैं तो दुविधा उत्पन्न होती है | कदाचित, यही वजह है कि  हम  संगीत में वही सब कुछ खोजने निकल पड़ते हैं  जो कविता में खोजते हैं | आपने बहुत अच्छी बहस कराई ,बहुत आनंद आया और कुछ बातें स्वतः स्फूर्त ढंग से आई |

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