बन्धुवर , वह औद्योगिक पूंजी का ज़माना था ,जब मजदूर की पगार का शोषण और उससे अतिरिक्त घंटे काम कराकर 'अतिरिक्त पूंजी का ' जुगाड़ किया जाता था | इसी से पूंजी बढ़ती है और अतिरिक्त ताकत से प्रशासन -सत्ता से अपना गठजोड़ बिठा लेती है |प्रलोभन और भेद-युक्तियाँ उसके सबसे बड़े अस्त्र होते हैं |यही तो संघर्ष है | सुकोमल सेन की किताब बात के मर्म तक पंहुचाने वाली होगी | अब औद्योगिक पूंजी का स्थान 'आवारा पूंजी' ने ले लिया है |
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