Saturday 28 January 2012

मैं कविता में मिठास का विरोधी नहीं हूँ| जिनको मेरे बारे में पता है कि  मुझे न पढने की बीमारी है , ऐसे लोग अपनी दुकान  अपने पास रखें और उन लोगों से बातें करें जो उनकी कवितायें पढ़ते हैं |व्यर्थ में फटे में पाँव क्यों देते हैं ? जिनको आज की कविता में तेजी से उभरता गडमड्ड  कलावाद नज़र नहीं आता और जो लोग केवल अपनी ही कविता के पारखी हैं ,ऐसे लोगों से मैं बचने की कोशिश करता हूँ |  मेरा तात्पर्य विरुद्धों के सामंजस्य से था , जो आज की कविता में कमजोर पडा है और इकहरेपन का यांत्रिक तनाव ज्यादा दिखाई देता है| द्वंद्वात्मक तनाव  जीवनानुभवों से आता है ,    मात्र किताबी ज्ञान से नहीं | जीवनानुभवों की तीव्रता केवल उन लोकधर्मी युवा कविताओं में आरही है जो ठेठ जीवनानुभवों  के संपर्क में हैं | इनमें ताजगी और सहजता जैसे काव्य-गुण खूब हैं और यह मध्यवर्गीय सीमाओं का अतिक्रमण कर कविता के विस्तृत जीवन-प्रांगणों के रू-ब-रू कराने वाली है लेकिन यहाँ भी अभी अपने समय का वास्तविक तनाव कमजोर स्थिति में है | जब तक उत्तर- आधुनिक  विचारधारा द्वारा फैलाई जा रही भ्रांतियों के  विमर्शजन्य खंडित "दर्शन" की पहेलियों से मुक्त होकर सीधे- सीधे  मेहनतकश के समग्र दर्शन  की  रोशनी में चीजों को फिर से  नहीं देखने का अभ्यास किया जायगा तब तक मिठास और कडवाहट के तनाव की वह अभिव्यक्ति नहीं होगी , जो हर युग में बड़ी और बेहतरीन कविता के लिए जरूरी होती है |  अच्छी कविता आज भी खूब लिखी जा रही है |मैं अपनी समझ और एक बेहद सामान्य कविता- पाठक की हैसियत से अपनी बात कह रहा हूँ |

1 comment:

  1. बहुत शानदार और लाजवाब!!! आभार
    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
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