बच्चों को किसी एक दिन तक सीमित कर देना मनभावन नहीं लगता । ये बच्चे ही तो हैं जो रोज जीवन की फुलवारी को महकाते हैं । सहज रूप से बच्चा ही अपना जीवन जी पाता है , बाद में तो आदमी गोरखधंधे में पड़ जाता है और अपने आगे किसी और को नहीं बदता । जब 'समझदारी ' आ जाती है तो बचपन-यौवन सब दूर भाग जाते हैं । जय शंकर प्रसाद ने अपने एक नाटक में एक जगह लिखा है -------"समझदारी आने पर यौवन चला जाता है " । अच्छा तो यही है कि ऐसी 'समझदारी' आये ही नहीं कि यौवन को जाना पड़े ।
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