अंधविश्वास और पाखंड तब भी फैलते हैं जब नेतृत्वकारी व्यक्ति जो कहता है ,उस पर आचरण नहीं करता । राजनीति, समाज पर अपना वर्चस्व बनाकर उसे जिधर चाहती है उधर धकेलती है । अर्थ और राजनीति का गहरा गठजोड़ होता है ।यह तथ्य है कि व्यक्ति वही पढ़ना चाहता है जो उसे अर्थ-समृद्ध बनाये ।अंगरेजी माध्यम का प्रचलन तेजी से इसी वजह से बढ़ा है । जब लोग अपनी भाषा में नहीं पढ़ेंगे तो बात की गहराई को कैसे समझ पाएंगे ?आज जो शिक्षा दी जा रही है वह व्यक्ति को बाज़ार के अंधे कुए में धकेलने वाली है । बाज़ार और शिक्षा का ऐसा गठजोड़ बनाया जा रहा है कि व्यक्ति महानायक और भगवान् के रूप में या तो फ़िल्मी अभिनेताओं को देखे-माने या क्रिकेट के खिलाड़ियों को ।जो असली मुक्तिदाता हैं उनको भुला दिया जाए । बाज़ार को विज्ञापन करने वाले लोग चाहिए जिन्हे वह मीडिया के माध्यम से पैदा करने की कला जान गया है । इसलिए जरूरी यह है कि व्यक्ति का राजनीतिक प्रशिक्षण बहुत गहराई से हो । राजनीति को जाने बिना अपने समय की सचाई तक पहुँच पाना मुश्किल होता है । राजनीति में संस्कृति के नाम पर साम्प्रदायिकता को केंद्र में स्थापित करने की कोशिशें की जाती हैं जिसके साथ अंधविश्वास और पाखण्ड सिमटे चले आते हैं ।साम्प्रदायिक ताकतें सबसे पहले शिक्षा तंत्र पर कब्जा इसीलिये करती हैं कि बौद्धिकता के नाम पर एक काल्पनिक-मिथ्या इतिहास गढ़कर निरंतर पढ़ाया जाय । इन सारे पहलुओं पर समग्रता में सोचने की जरूरत है ।शिक्षा तंत्र का संचालन राज्यसत्ता के हाथ में होता है । जब एन डी ए की सरकार आयी थी तब पाठ्यक्रम में वैदिक ज्योतिष और गणित आ गए थे ।
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