Saturday, 2 November 2013

अभी कविवर महेश पुनेठा की पहाड़ी जीवन की लय वाली दीवाली पर एक भावसम्पन्न कविता पढ़ी । पहाड़ी खेतिहर दीपावली का रंग इसमें खूब जमा है । पहाड़ में दीपावली का मूल बचा हुआ है यह पढ़कर राहत मिलती है अन्यथा हमारे यहाँ वह उपभोक्ता-वाद के रंग में ऐसी रंग गयी है कि इसके अलावा ---हैप्पी दिवाली- शब्द भर हैं , उनमें प्राण और उमंग नहीं कि मन बल्लियों उछाल  मार सके । दीवाली पैसे वालों की  होती है । आज के दिन भी घरों में झाड़ू-पौंछा लगाने वालियों से पूछें  कि उनकी दीवाली कैसी रही ? एक तरफ बीस- बीस ----,पचास-पचास हज़ार से भी ज्यादा के पटाखे फोड़ दिए जायेंगे , जो वातावरण को भी  नुकसान  पहुंचाएंगे और दिखावे को आसमान तक चढ़ा देंगे ।इसके विपरीत  सादगी का जो आनंद है , वह दीवाली की भावना  को दूर तक विस्तृत करता है ।धन की दीवाली उसे सिकोड़ती है ।हमारे यहाँ यह गांव के बड़े-बूढ़ों से आशीर्वाद लेने के लिए मनाई जाती थी वह भी समानता के रंग में । उसमें विषमता का काला रंग नहीं होता था , आज इसमें गहरा काला रंग भरा जा रहा है । एक अजीब तरह के अंधविश्वास को आदमी के मन में भीतर तक घुसाया जा रहा है ।   कवि महेश पुनेठा के  यहाँ की पहाड़ी संरचना में उसका खेती-किसानी वाला रूप बचा हुआ है । उसी की प्रफुल्ल लयकारी  उनकी  कविता में है और उसकी भाषा का अपना बेहद अनुभूतिपरक मिज़ाज़ ।बाज़ार में फंसे लोगों के लिए यह --नोस्टैल्जिआ जैसी हो सकती है ।  इस माधुर्य के लिए बधाई , यह हमारे लिए दीपावली के व्यंजनों की तरह है । हार्दिक बधाई ।

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