सिडनी की डायरी ---२० नवंबर २०१२ ,मंगलवार
पिछले साल इन दिनों बेटे अलंकार के साथ आस्ट्रेलिया के सिडनी महानगर के पेंशर्स्ट उपनगर में हम दोनों थे । मैं अपने पौत्र को साथ लेकर वहाँ के मिरांडा स्थित उपनगर के एक शिशु घर---वॉम्बेट प्ले स्कूल ---- में रेल सफर तय करके जाता था । मेट्रो रेल में बीस-पच्चीस मिनट लगते थे । बीच में गहरी ,विस्तृत और प्रफुल्लित जॉर्ज नदी पर बने पुल से तथा , पहाड़ों और सुरंगों से रेल गुजरती थी ।रोमांचकारी अनुभव होता था , जितनी बार वहाँ से गुजरो उतना ही नया और स्फूर्तिकारी । प्रकृति के सौंदर्य की बराबरी नहीं और वह भी निर्भेदकारी । प्रकृति का सन्देश ही मानो भेद - बुद्धि को भुला देने का है । फिर भी मनुष्य अपनी संस्कृति पर गर्व करते हुए भी कितनी ही भेद-प्राचीरें चिनता चला जाता है । अतिरिक्त धन और सत्ता पाने की लालसा उसे मनुष्य रहने ही नहीं देती । वह अपनी प्रकृति को भूल जाता है । नदी में वहाँ के धनिक वर्ग के अपने नौका-विहार के लिए तरह तरह की बड़ी बड़ी और सुसज्जित नावें पडी हुई थी । ऐसा प्रतीत होता था जैसे यह नदी-नाव संयोग प्रकृति और मनुष्य के बीच भाईचारे का एक ऐसा रूप है ,जो देशों की सीमाओं को डहा कर मनुष्यता को एकरूप कर देता है । जब भी रेल, पुल से गुजरती दुष्यंत कुमार का वह शेर याद आए बिना नहीं रहता -----"तू किसी रेल सी गुजरती है / मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ /"पौत्र अभि तुरंत नदी को निहारने लगता,पता नहीं उसके मन में क्या आता होगा ? यहाँ हम रेल से उतरकर एक---वेस्टफील्ड नामक मॉल से होकर शिशु घर तक पहुचते थे । यहाँ देखकर अच्छा लगता था कि मॉल में स्त्रियों की भूमिका पुरुष से ज्यादा है और वह भी उन्मुक्तता के साथ । स्वच्छंद और अपने भीतर सिमटी हुई । पूंजी का साम्राज्य मिलाता बहुत कम है , दूर ज्यादा हटाता है । एक जगह होकर भी सब अलग अलग अपनी अपनी दुनिया में । किसी को किसी से कोई मतलब नहीं । जिसके पास पैसा है वही खरीददार है । यह दुनिया जैसे केवल उसी के लिए बनी है । कितना अच्छा हो कि यह संसार एक नदी की तरह हो जाए । मैं यहाँ चार घंटे एक उपनगरीय पुस्तकालय में बिताता था । कभी मॉल के सामने बनी एक बेंच पर वहाँ के लोगों को आते-जाते देखते हुए । सब मौन साधे, अज्ञेय की कविता जैसे लगते थे । गति ही गति , कोई ठहराव नहीं । जीवन का यह रूप अब हमारे यहाँ भी तेजी से एक वर्ग विशेष में आ रहा है ।संयोग ऐसा कि अपने साथ मुक्तिबोध का साहित्य ले गया था । जो इस सभ्यता को दूर से ही नमस्कार करना सिखाता है , इसकी कुछ खूबियों के बावजूद ।
पिछले साल इन दिनों बेटे अलंकार के साथ आस्ट्रेलिया के सिडनी महानगर के पेंशर्स्ट उपनगर में हम दोनों थे । मैं अपने पौत्र को साथ लेकर वहाँ के मिरांडा स्थित उपनगर के एक शिशु घर---वॉम्बेट प्ले स्कूल ---- में रेल सफर तय करके जाता था । मेट्रो रेल में बीस-पच्चीस मिनट लगते थे । बीच में गहरी ,विस्तृत और प्रफुल्लित जॉर्ज नदी पर बने पुल से तथा , पहाड़ों और सुरंगों से रेल गुजरती थी ।रोमांचकारी अनुभव होता था , जितनी बार वहाँ से गुजरो उतना ही नया और स्फूर्तिकारी । प्रकृति के सौंदर्य की बराबरी नहीं और वह भी निर्भेदकारी । प्रकृति का सन्देश ही मानो भेद - बुद्धि को भुला देने का है । फिर भी मनुष्य अपनी संस्कृति पर गर्व करते हुए भी कितनी ही भेद-प्राचीरें चिनता चला जाता है । अतिरिक्त धन और सत्ता पाने की लालसा उसे मनुष्य रहने ही नहीं देती । वह अपनी प्रकृति को भूल जाता है । नदी में वहाँ के धनिक वर्ग के अपने नौका-विहार के लिए तरह तरह की बड़ी बड़ी और सुसज्जित नावें पडी हुई थी । ऐसा प्रतीत होता था जैसे यह नदी-नाव संयोग प्रकृति और मनुष्य के बीच भाईचारे का एक ऐसा रूप है ,जो देशों की सीमाओं को डहा कर मनुष्यता को एकरूप कर देता है । जब भी रेल, पुल से गुजरती दुष्यंत कुमार का वह शेर याद आए बिना नहीं रहता -----"तू किसी रेल सी गुजरती है / मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ /"पौत्र अभि तुरंत नदी को निहारने लगता,पता नहीं उसके मन में क्या आता होगा ? यहाँ हम रेल से उतरकर एक---वेस्टफील्ड नामक मॉल से होकर शिशु घर तक पहुचते थे । यहाँ देखकर अच्छा लगता था कि मॉल में स्त्रियों की भूमिका पुरुष से ज्यादा है और वह भी उन्मुक्तता के साथ । स्वच्छंद और अपने भीतर सिमटी हुई । पूंजी का साम्राज्य मिलाता बहुत कम है , दूर ज्यादा हटाता है । एक जगह होकर भी सब अलग अलग अपनी अपनी दुनिया में । किसी को किसी से कोई मतलब नहीं । जिसके पास पैसा है वही खरीददार है । यह दुनिया जैसे केवल उसी के लिए बनी है । कितना अच्छा हो कि यह संसार एक नदी की तरह हो जाए । मैं यहाँ चार घंटे एक उपनगरीय पुस्तकालय में बिताता था । कभी मॉल के सामने बनी एक बेंच पर वहाँ के लोगों को आते-जाते देखते हुए । सब मौन साधे, अज्ञेय की कविता जैसे लगते थे । गति ही गति , कोई ठहराव नहीं । जीवन का यह रूप अब हमारे यहाँ भी तेजी से एक वर्ग विशेष में आ रहा है ।संयोग ऐसा कि अपने साथ मुक्तिबोध का साहित्य ले गया था । जो इस सभ्यता को दूर से ही नमस्कार करना सिखाता है , इसकी कुछ खूबियों के बावजूद ।
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