अलवर में ठीक चुनावों के बीच इन दिनों द्वि-दिवसीय --मत्स्य-उत्सव ----चल रहा है । पर्यटन विभाग की सरकारी लीला । जन की भागीदारी सिर्फ लोक-कलाकारों तक सीमित । लोक कलाकार न हों तो इन उत्सवों का क्या हो ? यह लोक कला ही तो है जो किसी स्थानीय रंग और उसकी धरती की बनक को पहचान देती है । बहुत दिनों पहले का एक मेवाती गीत इस उत्स्व में गाया जा रहा है । गीत उस समय का है जब घरों में स्त्रियां चक्की से अन्न पीसा करती थी । कोई नयी नवेली वधू घर में आई और आते ही सास ने कुछ ही दिनों बाद उसे चक्की पर बिठा दिया । वह अपने पति को उपालम्भ देती हुई गा रही है -----"मोपै चलै ना तेरी चाखी , हमारी बारी सी उमरिया ।" पति जबाव में कहता है ----"अरे सौ सौ लगा दूं पीसनहारी , तिहारी पतली सी कमरिया ।"उपालम्भ को यदि न समझा जाय तो धीरे-धीरे वह प्रतिरोध में बदल जाता है । बहरहाल , प्राचीन काल में कभी मत्स्य जनपद का हिस्सा रहा यह भूभाग आज़ादी मिलने के बाद बहुत थोड़े से समय के लिए ---मत्स्य प्रदेश --बना था । चार रियासतों को मिलाकर ---अलवर, भरतपुर, धौलपुर और करौली । राजधानी मुख्यालय अलवर रहा और यहीं के शोभाराम जी इसके पहले मुख्य मंत्री बने । कहते हैं कि यह नाम प्रसिद्ध लेखक कन्हैया लाल माणिक्य लाल मुंशी ने सुझाया था ।बाद में इसका विलय राजस्थान में कर दिया गया ।
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