अतिरिक्त पूंजी धर्म-मजहब को अपनी दाहिनी भुजा की तरह इस्तेमाल करती है । फिर सब कुछ गड्मड्ड हो जाता है । बदसूरत , खूबसूरत लगने लगता है और खूबसूरत, बदसूरत । यही तो कला है आवारा पूंजीवाद की , जिसमें अच्छे और बुरे की पहचान मिटा दी जाती है । इस कला में जो मिसफिट है ,वह --कालोहिनिरवधि विपुला च पृथ्वी ----का इंतज़ार करता है ।
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