देश में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों ने सबसे ज्यादा दुर्गति कृषि-क्षेत्रों की की है । गावों से लोग तेजी से शहरों में पलायन इसी लिए कर रहे हैं । गावों में अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार इतने पिछड़ी अवस्था में हैं कि जो वहाँ रहता है और उस अभिशाप को भोगता है वही जानता है ।जाके पांव न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई । इससे वहाँ अलगाव और भी बढे हैं ।आबादी बढ़ने से जोत-सीमा और कम हुई है । असुविधाओं के चलते शहरी जीवन जीने वाला व्यक्ति एक रात भी गांव में ठहरना नहीं चाहता । अफसर, विधायक वहाँ रहते ही नहीं जो उनकी पीड़ा को जाने- समझें । फिर उनके ऊपर पूंजीवादी आर्थिक नीतियों का डंडा । जब तक किसान यूनियन अपना काम नहीं करेंगी, तब तक गांव का मतदाता एकजुट नहीं होगा और जातिवादी-सम्प्रदायवादी आधारों पर वोट देने की प्रक्रिया से अलग नहीं होगा,तब तक कृषि-क्षेत्रों की दुर्दशा कम नहीं होगी । आज किसानी सबसे घाटे का सौदा है । जरूरत है किसान को गारंटी और उन रियायतों की जो कृषि-क्षेत्र के लिए जरूरी हैं । जिनको हम आज पढ़ा-लिखा और पीछे से ग्रामवासी मानते हैं वे अपनी पढ़ाई को अपने हित-साधन के लिए काम में लेते हैं । अपना हित-साधन करना है तो गांव के किसान ,खेतिहर मजदूर को जाति - निरपेक्ष होकर संगठित रूप में अपना दबाव बनाना पडेगा । अनुनय-विनय और पांच वर्ष में एक बार आने वाले इस चुनाव मेले से काम बनने वाला होता तो , अब तक बन गया होता ।राजनीतिक जातिवाद का जहर काले नाग से भी ज्यादा मारक होता है लेकिन यही जहर राजनीतिक दलों के लिए अमृत का काम कर रहा है ।
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