गहरा अन्धेरा है चहुँ ओर
खाई-खंदक इतने गहरे
और डरावने कि
नायक और खलनायक के
चेहरों में कोई फर्क नहीं
यह अश्वमेध का युग नहीं
फिर भी एक
घूम रहा है
और ऐसा लग रहा है कि
हम पांचवीं सदी में आ गए हैं
खजानों के सपने देख रहे हैं
नेता को अवतार बना रहे हैं
ऐसे अँधेरे से दीपावली के
छोटे छोटे दीये
बाहर नहीं निकाल सकते
बस शुभकामना की जा सकती है
---तमसोमाज्योतिर्गमय ।
खाई-खंदक इतने गहरे
और डरावने कि
नायक और खलनायक के
चेहरों में कोई फर्क नहीं
यह अश्वमेध का युग नहीं
फिर भी एक
घूम रहा है
और ऐसा लग रहा है कि
हम पांचवीं सदी में आ गए हैं
खजानों के सपने देख रहे हैं
नेता को अवतार बना रहे हैं
ऐसे अँधेरे से दीपावली के
छोटे छोटे दीये
बाहर नहीं निकाल सकते
बस शुभकामना की जा सकती है
---तमसोमाज्योतिर्गमय ।
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