Sunday, 3 November 2013

दीपावली के दूसरे दिन ब्रज में गोवर्धन पर्व मनाया जाता है । यहाँ मथुरा के आसपास दूर तक कोई पर्वत नहीं है गोवर्धन पर्वत के सिवाय---इसे यहाँ गिरि -राज कहा जाता है ।गिरि राज महाराज का जयकारा यहाँ का प्रमुख जयकारा है ।   जब कृषि-क्षेत्र का विस्तार हुआ और खेती के लिए गोधन की जरूरत पड़ने लगी तो जिंदगी को पर्व में बदलने वाले समाज ने अपनी प्रकृति, पहाड़ , नदी ,पशु-पक्षी सबको अपने ह्रदय का हिस्सा बना लिया । इस रोज पशुओं---खासकर बैलों , गायों को नहला धुला कर उनका श्रृंगार किया जाता था । मोरपंखों से माला बनाकर सजाया जाता था । घर को समृद्धि प्रदान जो करने वाले थे । समृद्धि, संस्कृति का अंग बनती  जाती है बशर्ते कि लोभ-लालच का फैलाव उसके साथ न हो । ब्रज की संस्कृति ऐसे ही बनी और विकसित हुई है , जिसे वल्ल्भाचार्य, चैतन्य ,मीरा और सूर एवं अष्टछाप के कवियों ने भावात्मक एवं दार्शनिक आधार प्रदान किया । आज उसकी स्मृति का आयोजन है यद्यपि उसका रूप जमाने के अनुरूप बहुत बदल चुका है । इसी के लिए रसखान ने कहा था ---"-मानुष हौं तो वही रसखान , बसों ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन । "

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