कविता में जनपद उसकी धरती की तरह होता है । जो अपने जनपद का नहीं है वह दूसरों का होने का झूठा दावा करता है ।जनपद में जन और पद दोनों मौज़ूद हैं । प्रतिज्ञा का पहला इम्तहान उसी धरती-खंड पर होता है जिसके ऊपर रोज हमारे पाँव पड़ते हैं ।यहीं से व्यक्ति अपना व्यक्तित्व विस्तार करता है और वहाँ तक जाता है जहां मानवता का छोर समाप्त होता है । इस प्रक्रिया में सारी दीवारें ढहती जाती हैं ।एक भी दीवार बनी रहे तो समझो अभी कच्चापन है ।
No comments:
Post a Comment