Thursday, 28 November 2013

इन दिनों कविवर निलय उपाध्याय गंगा-यात्रा पर हैं उन्होंने गंगा के सन्दर्भ से प्रकृति-चिंता और एक मशहूर पर्यावरणविद तथा उसके लिए वैराग्य की सीमा तक जाने वाले प्रो   जी डी अग्रवाल से   अपना साक्षात्कार प्रस्तुत किया है ,जिससे  मेरे मन   में कुछ सवाल पैदा हुए हैं । इस बातचीत में बहुत सी बातों के लिए यूरोप की आधुनिक सभ्यता को जिम्मेदार माना है । खासकर युद्धों के  लिए । इसमें कार्ल मार्क्स के चिंतन पर भी  टिप्पणी  है ।
मेरा  मन इस बारे में  यह है कि  आज के उपभोक्तावादी माहौल में प्रकृति-पर्यावरण में मन को समाकर रखना संस्कृति का नया अध्याय रचने के बराबर है लेकिन जिस देश में हज़ारों साल पहले --महाभारत जैसा संग्राम हुआ हो और जो सभ्यता सुरासुर संग्रामों से भरी हुई हो , उसकी अनदेखी करके युद्ध के लिए केवल पश्चिमी सभ्यता को जिम्मेदार   मानना कहाँ  तक तर्कसंगत है ? यह ठीक है कि आधुनिक सभ्यता को धरती पर उतारने की जिम्मेदारी पश्चिम की है ,जिसे महात्मां  गांधी ने स्वीकार करते हुए भी --शैतानी सभ्यता नाम  दिया था ।यह भी सही है कि पूंजी-बाज़ार पर आधिपत्य  के लिए उस धरती पर दो विनाशकारी युद्ध हुए , किन्तु  सवाल यह भी तो है कि इस  इतिहास - गति को कैसे अवरुद्ध किया जाय ?  यूरोप में विकसित पूंजीवादी व्यवस्था का जितना निर्मम और तर्कसंगत विरोध प्रसिद्ध चिंतक मार्क्स ने  किया है और उसका  विवेक संपन्न विकल्प प्रस्तुत किया है जो वर्त्तमान उपभोक्तावाद के विरूद्ध प्रकृति-पर्यावरण के  अनुकूल भी है  और एक अलग तरह की आधुनिक सभ्यता की नींव रखता है । उसके बारे में एक बनी बनायी धारणा प्रस्तुत करने से काम चलने वाला नहीं है क्योंकि सवाल केवल पर्यावरण का नहीं है बल्कि उस विषमता का भी  है जिसमें एक वर्ग अपने फायदे के लिए प्रकृति का दोहन उसकी अंतिम सीमा तक कर  रहा है । चोर को मारना ठीक है ,किन्तु जब तक चोर की माँ को नहीं मारा जायेगा , तब तक चोरों का प्रजनन बंद नहीं हो सकता ।

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