आज १ ३ नवंबर महाकवि मुक्तिबोध का जन्म-दिवस है --१ ९ १ ७ में जब रूसी क्रांति कुल जमा छः दिन पहले ही हुई थी , मुक्तिबोध इस दुनिया में आये थे । ऐसे लोगों के आने से दुनिया नहीं तो देश-प्रदेश के महासागर में हलचल मच जाती है । मुक्तिबोध साहित्य की एक ऐसी विरल और विलक्षण तरंग हैं ,जो आज भी मन को वैसे ही विचलित कर देती हैं जैसे देश को आज़ादी मिलने के बाद के दिनों में ।मुक्तिबोध समय के एक ऐसे संधिस्थल पर थे जब जीवन जीने के रास्ते दो दिशाओं में फट रहे थे । एक रास्ता सत्ता की ओर जाता था , दूसरा जन की ओर । कहना न होगा कि मुक्तिबोध ने समय से कोई समझौता न करके दूसरा रास्ता चुना था । यह दूसरा रास्ता अभावों, कष्टों , पीड़ाओं , तनावों , त्रासदियों और बेचैनियों-उपेक्षाओं-तिरस्कारों का रास्ता था , जो गरीब मेहनतकशों का हर जमाने में हुआ करता है ।उन्होंने सत्ता की बजाय देश के गरीब, उत्पीड़ित-शोषित-दलित मेहनतकश वर्ग के साथ रहने का रास्ता चुना था और वह भी बहुत सोच-विचारकर । चाहते तो वे भी पहली दिशा में आसानी से जा सकते थे । मुक्तिबोध अपनी स्थिति को अच्छी तरह जानते थे कि उनका अपना वर्ग निम्न -मध्यवर्ग है ,जो प्रतिरोध करता है किन्तु अपने पूरे बचाव के साथ ---वह अपनी नियति मानता है कि उसे एक अवसरवादी जीवन जीना है । कुछ सुविधाओं के साथ सत्ता के दम्भ और उत्पीड़न से टकराते रहने का जीवन । पुरस्कारों, सम्मानों से विरक्ति रखने का जीवन ,,चाटुकारिता और चापलूसी से खुद को बचाते रहने का एक ऐसा जीवन , जिसमें एक मूल्य-पद्धति अलग से नज़र आए । वे पीछे से मराठी थे किन्तु उनके परदादा तत्कालीन ग्वालियर रियासत में नौकरी करने आ गए थे । दादा जी ने तत्कालीन राजपूताने की टौंक रियासत में नौकरी की थी । पिताजी ग्वालियर रियासत के श्योपुर कलां कस्बे के थाने में थानेदार थे । इसी कस्बे में उनका जन्म हुआ था ।संयोग रहा कि मुझे १ ९ ७ १ में इस कस्बे के एक सरकारी कालेज में हिंदी का अध्यापक होने का सुखद अवसर मिला । यहाँ मुक्तिबोध के बारे में नज़दीक से जानने का अवसर मिला । संयोग कुछ ऐसा रहा कि जिस थाने में मुक्तिबोध के पिता थानेदार थे , उसी जगह पर उस समय एक और कवि--थानेदार आ गए , जिनसे हम कुछ लोगों की ऐसी पटरी बैठी कि उस थाने के भीतर कवि-गोष्ठी करने का कभी-कभी अवसर मिल जाता था ।माहौल कवि-गोष्ठी, मुशायरा और कभी कभी कवि-सम्मलेन का बन जाता था । बंगला देश बनने के दिन थे , जवानों में जोश की कमी नहीं थी । मुझे ध्यान आता है कि थाने के सामने के मैदान पर एक कवि- सम्मलेन खूब जमा था , उसमें गीतकार वीरेंद्र मिश्र , मुकुट बिहारी सरोज आदि आये थे , उस समय मुझे भी तुकबंदी करने का जोश रहता था । थानेदार जी कविता के इतने शौकीन थे कि गश्त पर जाते तब भी साथियों को अपने साथ ले जाना नहीं भूलते । मुक्तिबोध समझ में नहीं आते तब भी जबान पर रहते । आखिर उनकी जन्म-स्थली थी और हम इस बात में फूले नहीं समाते थे कि हम उसी नगर में रह रहे हैं जिसमें कभी मुक्तिबोध रहते थे । इस समय तक मुक्तिबोध को गुजरे हुए कुल सात साल ही बीते थे । "चाँद का मुंह टेढ़ा है " के चर्चे चल निकले थे पर यह समझ से बाहर था कि चाँद का मुंह टेढ़ा क्यों है ? बहरहाल , कविता की ऐसी मस्ती के दिन, जिनमें आवारागर्दी भी शामिल थी , बाद में भी आए तो सही पर वैसे नहीं । हंसना और खेलना खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद ----का माहौल था । मैं इस नगर में केवल एक साल रहा । चम्बल को नाव से पार करके श्योपुर जाना पड़ता था और उस समय डाकुओं का भय भी रहता था ।दूसरे , मेरा चयन राजस्थान की कालेज शिक्षा सेवा के लिए भी हो गया था । लेकिन आज तक भी श्योपुर मेरे जीवन का एक आह्लादक अध्याय बना हुआ है ।एक पहाड़ी किले में कालेज और सीप नदी का किनारा । पैदल जाना-आना और मराठी परिवारों के साथ जुगल बंदी । बार बार आती है मुझको मधुर याद श्योपुर की ।
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