Saturday, 31 August 2013

गांधी जी ने अपनी कृति ----हिन्द स्वराज्य ----में दो तरह की तालीम की बात कही है एक अच्छी तालीम और दूसरी बुरी तालीम । सामान्यतया लोग हर तरह की तालीम 'अच्छी तालीम'समझ लेते हैं , किन्तु गांधी जी तालीम, तालीम में फर्क करते हैं । जो तालीम व्यवस्था अपनी ओर से दिलाती  है वह ज्यादातर अपने कारकुन तैयार करने के लिए । यह तो हम जानते ही हैं कि शिक्षा-नीति के नाम पर सन १ ८ ३ ५ में जो "एजुकेशन डिस्पैच "  यहाँ मैकाले की मार्फ़त लागू किया गया , थोड़े-बहुत फेर-बदल के बाद   आज तक वही चला आ रहा है । गांधी जी ने इस शिक्षा पद्धति के बारे में उस समय लिखा था --"उसका अच्छा उपयोग प्रमाण में कम ही लोग करते हैं । यह बात अगर ठीक है तो इससे यह साबित होता है कि अक्षर-ज्ञान से दुनिया को फायदे के बदले नुकसान  ही हुआ है । " उन्होंने यह बात भी उठाई है कि जो शिक्षा मुझे मिली है , उससे मैंने कितनों का भला किया है या करने की सोची है या मैं उससे सिर्फ अपने भले की ही सोचता और करता हूँ  । यह शिक्षा हमें स्वार्थी बनाती है या परमार्थी ? जो शिक्षा व्यक्ति को स्वार्थी बनाती है उसे अच्छी शिक्षा कैसे कहा जा सकता है ? वे लिखते हैं " उस आदमी ने सच्ची शिक्षा पाई है ,जिसकी बुद्धि शुद्ध , शान्त  और  न्याय-दर्शी है । उसने सच्ची शिक्षा पाई है , जिसका मन कुदरती कानूनों से भरा है और जिसकी इन्द्रियाँ उसके वश में हैं , जिसके मन की भावनाएं बिलकुल शुद्ध हैं, जिसे बुरे कामों से नफरत है और जो दूसरों को अपने जैसा मानता  है । "
कलाएं प्रकृतिगत  पारस्परिकता रखती हैं जैसे दो सच्चे मित्र ,किन्तु  दोनों की स्वायत्तता ख़त्म नहीं हो ,यह भी जरूरी है ।    दोनों के मिलन बिंदु पर  ऐसा महसूस होने लगे कि चित्र , कविता है और  कविता,चित्र है । इसके बावजूद दोनों अपनी -अपनी सत्ता का अहसास भी लुप्त नहीं होने दें  ।
हाँ ऐसा ही होता है
जब आसमान अपनी धरती के साथ
दोगला व्यवहार करता है
जब हर समय
झूठ को
तकिये की तरह
गर्दन के नीचे लगाकर
भरी सभा में
भीष्म
एक मनुष्य-विरोधी
सत्ता की रक्षा की
मिथ्या-मर्यादा से
जौंक की तरह चिपका रहता है

हाँ ऐसा ही होता है
जब आग  की गवाही
जंगल में उगे विटपों  से
दिलाने की कोशिशें होती हैं

हाँ ऐसा ही होता है
जब झूठ के पाँव लगाने की
कोशिशें जारी रहती हैं और
इलाहाबाद के पथ पर
पत्थर तोड़ने वाली के साथ
बार बार बलात्कार होने लगता है
हाँ, ऐसा ही होता है तब ।








क़ानून जब ताकतवर की ओर झुक जाता है तब ऐसा ही होता है । अभी यही कहावत सटीक तौर पर काम कर रही है  ----कमजोर की जोरू सब की भाभी । लेकिन संगठन कमजोर को ताकत देता है , तभी तो ताकतवर भी गली-कूंचों में मारा- मारा फिर रहा है इंद्र के बेटे जयंत की तरह ।
कविता और क्रान्ति
टेढा सवाल है कि कविता क्या करती है ? या कविता क्या है ? यह सवाल जब भी कोई कविता लिखता होगा, उसके मन में जरूर उठता होगा ।  जो कविता पढता है , उसके मन में भी आता होगा कि वह कविता पढ़ क्यों रहा है ? हर बात से क्रान्ति नहीं हुआ करती , फिर भी हम उस बात को  करते रहते हैं । आज भी आचार्य शुक्ल की यह  बात अच्छी लगती है  कि "कविता मनुष्य - भाव की रक्षा करती है " । जिनके पास अपार और अकूत दौलत है ,सत्ता की पूरी ताकत है ,वैभव है , विलास का महासागर है धरती से लगाकर आसमान तक सब कुछ उन्होंने अपने "तीन पैंड " में नाप लिया है , पर मनुष्य-भाव नहीं है तो सब कुछ थोथे चने की तरह है ।यह मनुष्य भाव ही तो है , जो मनुष्य को पशु से अलग करता है । अन्यथा  वह  "पुच्छ-विषाण -हीन " पशु ही तो है । लेकिन इसको समझकर व्यवहार में उतारना वैसा ही है जैसे वर्तमान में अमरीका को युद्ध-विरत रख पाना और देश के बिगड़ते हालातों में 'समाजवादी अर्थ-व्यवस्था ' का विकल्प देना । मुझे लगता है कि यदि व्यावहारिक स्तर पर मनुष्य- भाव की रक्षा होती रहेगी  तो एक दिन वह दिन भी आ जायगा, जिसे हम क्रान्ति का दिन कहेंगे । कविता हमारे मन को रचती हुई कुछ ऐसा ही करती रहती है , बशर्ते कि वह कविता हो । विखंडित नहीं पूरी कविता । 

Friday, 30 August 2013

साहित्य लत नहीं ,जब जीवन  की आवश्यकता बन जाय , जैसे आक्सीजन , तभी समर्पण और निष्काम भाव से साहित्य रचा जा सकता  है , जिसमें रचते चले जाने के अलावा और कुछ अच्छा नहीं लगता । जैसे संत कहा करते थे कि हमको सीकरी से क्या काम है ? जिन संतों को सीकरी से काम होता है वे संत नहीं होते । साधु  वेशधारी कथा वाचक संत नहीं हुआ करते । वे व्यवसायी होते हैं  जैसे  पुरस्कार-कामना से लिखा साहित्य ,सच्चा साहित्य नहीं हुआ करता ।   देश का दुर्भाग्य यह है कि वह साधुता और व्यावसायिकता में फर्क करना भूल गया है । और सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इन साधु - वेशी" मोड़ों " के  चेले नेता इनसे डरते बहुत हैं ।ये ही सबसे पहले इनके चरणों में झुकते हैं ।  ऐसे बाबाओं को हमारे यहाँ राठ  अंचल में " मोड़ा " कहा जाता है । जो कदाचित इनके लिए सबसे सटीक  शब्द है ।

Thursday, 29 August 2013

इतने पर भी आस्था का पत्थर कुछ खिसकेगा या नहीं या सब  पहले की तरह ही चलता रहेगा । "धर्म" के नाम पर कब तक यह धंधा चलेगा और इसमें राजनेता कब तक हिस्सेदारी करते रहेंगे ? दाभोलकर कब तक अपने प्राण देते रहेंगे --ये सवाल हैं जो बार-बार  मन को हिलाते  हैं । हम कब तक चोर को मारेंगे ,चोर की माँ को नहीं । सिगरेट -दारू सब बनती  रहेगी , बस यह  चेतावनी लिखी  रहेगी कि ---सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।
पुरस्कारों और सम्मानों को पा जाने के बाद जो लोग कविता की ओर विशेष ध्यान देने लगते हैं ,वे कविता या साहित्य के संस्कारी पाठक नहीं हैं । यह पावस में दादुर ध्वनि जैसी बात है । ऐसे पाठक भेड़ -चालियों की गिनती में आते हैं । यदि पुरस्कारों और सम्मानों को पैमाना बना लिया जायगा तो प्रेमचन्द -मुक्तिबोध जैसे सच्चे रचनाकार किस पांत बैठेंगे? इनको जन-जन का दिली सम्मान  मिला हुआ है । ये किसी सत्ता के , चाहे वह 'साहित्य-सत्ता' हो, उसके मोहताज नहीं हैं । पुरस्कार-सम्मान को ध्यान  में रखकर कभी सच्चे साहित्य का सृजन नहीं हुआ करता । सत्ता चाहे "लोकतंत्र" के नाम वाली हो , होती वह सत्ता ही है ।यदि धन, पुरस्कार, सम्मान का ध्यान होता तो प्रेमचन्द-मुक्तिबोध सरीखे साहित्यकार कभी साम्राज्यवाद -सामंत वाद  विरोधी साहित्य का सृजन  नहीं कर पाते । हम जानते हैं कि देश को आज़ादी मिलते ही कितने ही साहित्यकारों ने अपना पाला बदल लिया था किन्तु मुक्तिबोध अभावों की जिन्दगी जीते हुए भी अपने विश्वासों से टस  से मस नहीं हुए थे । ऐसा विरले लोग ही कर पाते हैं । इस बात का मुक्तिबोध को गहरा अफ़सोस रहा कि जो लोग पहले मार्क्सवाद की , क्रान्ति की डींगे  हांका करते थे , वे सता का स्वाद चखने के लोभ में एक दिन में छिटक कर दूर हो गए किन्तु मुक्तिबोध ने  मरते दम तक अपना विश्वास  नहीं बदला । और मध्यवर्ग के अवसरवाद को ही अपनी भावी कविता का विषय बना डाला । यद्यपि उनकी कविता मध्यवर्ग तक ही सीमित नहीं है , उनके यहाँ उसका विकल्प वह लोक है जिसके पास ---" -ईमान का डंडा है , ह्रदय की तगारी है , बुद्धि का बल्लम है , बनाने को भवन , आत्मा के , मनुष्य के । " अवसरवाद बहुत बड़ी समस्या और चुनौती है , जिसका सामना मुक्तिबोध ने जितनी शिद्दत और जोखिम उठाकर किया , उतना  शायद कोई अन्य कवि कर पाया हो ।

Wednesday, 28 August 2013

बचपन नहीं ,
हमारा परिवेश हमको
सत्य नहीं बोलने देता
बचपन में छोटी-छोटी बातों पर
झूठ बोलता था
तब अम्मा कहती थी ---
"बेटा , भूखे की बगद जाती है
झूठे की कभी नहीं "


नेताओं को बोलते देखकर
अम्मा की
बहुत याद आती है ।







" अतीत  के अनुभव के रूप में अतीत का  मूल्यांकन करना अपर्याप्त है ,वर्तमान के अनभव के रूप में उसका विश्लेष्ण और मूल्यांकन आवश्यक है ।"---वाल्टर बैंजामिन 
आज कृष्ण जन्माष्टमी है ।एक जाना-माना ब्रज-लोक-संस्कृति का ऐसा पर्व , जिसमें एक महान कर्मयोगी व्यक्तित्त्व का एक अन्यायी-अत्याचारी व्यवस्था का दमन करने के लिए जन्म होता  है ।  मिथों में सांस्कृतिक सत्य का एक सीमित सारतत्व निहित रहता है इस वजह से वे समाज में इस तरह लोक -मान्य  रहते हैं जैसे वे इतिहास का ही एक हिस्सा हों । आदमी ने अपनी  तरह से अपने मन की  सांस्कृतिक इतिहास -सर्जना की है । वह कभी-कभी आश्चर्य  में डाल  देता है । इस पृथ्वी पर जो समाज प्राचीन  सभ्यताओं मेंआते  हैं उनके लिए अपनी परम्पराओं और उनसे पैदा हुई संस्कृति का बड़ा महत्त्व होता है । जो लोग परम्परा को अतीत का बोझ समझकर उसका तिरस्कार करते हैं , यह लोक भी उनको वैसे ही निकाल फैंकता है जैसे दूध में से मक्खी को फैंक दिया जाता है । इसका मतलब यह कतई नहीं कि हम अतीतवादी हो जाएँ । कृष्ण-संस्कृति ने हमको सूर-मीरा रसखान जैसे कवि दिए हैं और वल्लभाचार्य जैसा युग-चिंतक , जिन्होंने आचार्य शंकर के मायावाद का खंडन कर इस संसार के सत्य को अपने तरीके से प्रतिष्ठित किया  ।भक्ति-आन्दोलन से रची गयी कविता का सारतत्त्व आज भी हमारे बड़े काम का है । आचार्य शुक्ल ने अपने समय की कविता को छोड़ कर,भक्तिकालीन कविता से वे प्रतिमान विकसित किये ,जो आधुनिक कविता के काम भी आये । रामविलास जी ने उसे लोक-जागरण कहा ।  सूर ने इसी दर्शन से प्रेरित होकर एक ऐसे प्रेम-मार्ग का विकल्प सुझाया , जिसमें स्त्री-समाज ,उद्धव जैसे ज्ञानी पुरुषों को  उनकी हैसियत बता   देता है । यह  जानकार आश्चर्य होता है कि उस सामंत-कालीन पितृ-सत्तात्मक समय  में सूर ने कहीं कुछ स्त्री-विरुद्ध नहीं लिखा । शायद, यह उस कृष्ण -व्यक्तित्त्व की दिशा है जो राधा के लरिकाई प्रेम से संचालित हुए ।संगीत के लिए तो आज भी हिंदी-कृष्ण -संगीत वैसा ही है , जैसे आधुनिक युग के बांग्ला -संगीत में रवीन्द्र-संगीत । 



Monday, 26 August 2013

हमारे समाज की सामाजिक संरचना किसान को कभी किसान की पहचान नहीं देती । वह किसान से पहले एक बिरादरी या गोत्र होता है । वैसे तो यह बीमारी पूरे हिन्दुस्तान की है । यहाँ सबसे पहले आदमी की जात पूछने का रिवाज और वही उसकी पहचान की पहली सीढी  है फिर वहएक समग्र किसान समूह के रूप में  संगठित कैसे हो ?, यह चुनौती हमेशा दरपेश रहती है ।अखिल भारतीय किसान सभा ---एक औपचारिक और असमंजसपूर्ण तरीके से उनको संगठित करने की कोशिश करती रही है । पर राजनीतिक चेतना  के स्तर पर वे जात को ज्यादा विश्वसनीय और प्रामाणिक मानते हैं । जो और जिस तरह की राजनीति देश में होती है उसका मूलाधार अभी तक जात-बिरादरी बना हुआ है । यह दीवार टूटे तो  कुछ बात आगे बढे ।
डा० पद्मजा शर्मा ,जोधपुर में रहती हैं ।  उनका साहिय -अनुराग उनको विशिष्ट बनाता है । साहित्यकारों के आत्मिक स्वभाव को उनसे बातचीत करके व्यक्त कर देने की कला में वे  माहिर हैं । २ ० १ १ में १ ७ साहित्यकारों से साहित्य पर उनकी बातचीत "रु-ब -रु" शीर्षक से जोधपुर के रॉयल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है । इसमें राष्ट्रीय , प्रादेशिक और स्थानीय स्तर तक साहित्य-संस्कृति की एक प्रसन्न तस्वीर देखने को मिलती है । श्रीमती शर्मा एक ऐसी कवयित्री भी हैं जो अपने जीवनानुभवों को बेहद ईमानदारी से अपनी शब्द-कला में रचकर प्रस्तुत करती हैं । अभी पिछले दिनों उनका दूसरा  कविता संग्रह ---- सदी  के पार----शीर्षक से बोधि प्रकाशन , जयपुर से छाप कर आया और चर्चित हुआ । उनका हार्दिक स्वागत और बधाई ।
यह जो कुआ बन रहा है
और कितना गहरा होगा कि
इसमें धकेल कर
दबा दिया जायगा
तितलियों, भोरों और
वसंत की गायिका कोकिल को

जो मृदंग बज रहा है
शुभ  संकेत नहीं हैं
इसका नाद
सुर से  बाहर है

जो लोग कुआ खोदने  में माहिर हैं
खाईयों का सारा हिसाब उनके ही पास है
इनकी परिक्रमाओं में
प्रेतों का टोना
आखिर कब तक चलता रहेगा ।
अभी भोलापन बहुत बाकी है
और रास्तों की इतनी कमी है
कि बिना समझे लोग
किसी भी रास्ते पर चल पड़ते हैं ।









Sunday, 25 August 2013

अभी पिछले दिनों प्यारे  दोस्त हरियश राय का एक नया और दूसरा उपन्यास ----मुट्ठी में बादल ----शीर्षक से प्रकाशित हुआ । मुट्ठी में बादल ---आधार प्रकाशन , पंचकूला से प्रकाशित है । पूंजीवादी व्यवस्था मानवता को जहां सुख-सुविधा के साधन उपलब्ध कराती हैं वही वह इसके एवज में विनाश बहुत करती है , जिसका परिणाम होता है --मानवता पर से ही विश्वास  उठने लगता है । लेकिन , जब हम नीचे की ओर देखते हैं तो दीपक की लौ कहीं टिमटिमाती नज़र आती है किन्तु होती यह मेहनत  की सभ्यता और संस्कृति  के पास ही । जहां मेहनत नहीं होगी ,वहाँ संस्कृति भी नहीं । हमारे अलवर के एक बहुत पिछड़े ग्रामीण अंचल के जल-आन्दोलन से सम्बंधित जीवनानुभवों  को आधार बनाकर इस उपन्यास की रचना की गयी है प्रत्यक्ष अनुभव करके । वे स्वयं इस इलाके में गए -उन्होंने -'तरुण भारत संघ 'द्वारा प्रवर्तित जल-अभियान को व्यवहार के स्तर पर देखा । मैं भी दो बार उनके साथ जाने का साक्षी हूँ । भाषा में कोई  गाँठ-गठीलापन नहीं है सीधी सहज सरल रेखा पर चलती हुई । कहानी की नाव में बिठाकर  पार उतारती  एक पठनीय कृति ।
निलय भाई जो नया बन रहा है उसके आधारों की समझ नहीं बन रही है । आपको जानते ही है   कि मुक्तिबोध नेअपने जीवन-मूल्यों और  कविता रचने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी थी । उनकी कविता के भीतर का लोक हू -ब हू वैसा नहीं है जैसा उनके समय में ही नागार्जुन,केदार , त्रिलोचन की कविता का था । किन्तु , उनका मोर्चा भी एक तरह से 'लोक'के मोर्चे से अलग नहीं है ।  । संघर्ष की संरचनाएं एक रूप नहीं होती । उनमें विविधता होती है । रूसी भाषा-साहित्य में तालस्ताय हैं तो गोर्की  भी और दौस्तोय्व्स्की -चेखव भी । चेतन और अवचेतन दोनों की कला है साहित्य । कई बार चेतन से अवचेतन ज्यादा महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । हमारे लोक की सीमा यह रही है कि वह व्यक्ति-अवचेतन को बुर्जुआ मानकर छोड़ देता है । और मुक्तिबोध को सूची से बाहर । जब कि मुक्तिबोध साफ़-साफ़ शब्दों में कहते हैं -------" हम इसमें खुश हैं कि मुक्ति की तुम्हें खोज /विचार तुम्हारे सूक्ष्म /बिजली के बल्ब प्रतीकों में बंधते हैं /बंधने दो/ तुम भी लड़ते हो /सुना  है कि तुम भी खूब /शहरों के लुच्चों से करते हो दो दो हाथ /डाकुओं से हम भी तो लड़ते हैं /ताज़ी कटी फसलों का नाज़ बचाने को / किन्तु तुम जड़ और ठस हमें कहते हो /क्यों कि  हम सिपाही /क्यों कि हम गाडीवान /और तुम शहराती नुक्कड़ के कॉफे में /बताना न चाहते पहचान । ("इसी  बैलगाड़ी कविता" ---से )इस कविता में प्रयुक्त हम  और तुम सर्वनाम साफ़ बतला रहे  हैं कि मुक्तिबोध कहाँ  खड़े हैं और किनके साथ खड़े हैं ? लोक की ऐसी दो-टूक पक्षधरता की हिम्मत तो आज भी  कोई- कोई कवि ही दिखला पा रहा है । मुक्तिबोध के यहाँ कोई दुविधा नहीं है ।वे सुविधापरस्ती  और दुविधा के बीच पेंडुलम की तरह नहीं झूलते । वे जहां हैं वहाँ हैं । दो-टूक और चाक-चौबंद । 





निलय भाई बात तो इन पर भी की गयी है और की जा रही है । यदि बात की नहीं जाती तो आज यह बात भी नहीं होती जो हो रही है । लेकिन जो लोग बात कर रहे हैं वे स्वयं उन केन्द्रों में नहीं हैं , जहां से बात सुनना माना जाता है । आप जानते हैं कि कविता में 'लोक' की बात करने वाले कई मित्र-कवि यकायक पैदा नहीं हो गए हैं , उन पर कहीं न कहीं और कुछ तो हुआ है । और यह सिलसिला चल रहा है , धैर्य की जरूरत है और लगातार कठोर काम करने की । शौर्य और धैर्य दो पहिये हैं उस रथ के , त्रिलोचन ने अपने एक सॉनेट में तुलसी के रूपक की जिस अर्धाली को उद्दृत किया है ,उसे दिल में बिठा लेने की जरूरत है । वह व्यक्ति-चरित्र की कसौटी है ।
मनुष्य-भाव कालजयी होता है बशर्ते कि वह कालबद्ध हो ।कालबद्धता  के लिए अग्रगामी  विचारधारा की जरूरत होती है ।
केंद्र जहां पर भी होते हैं ,वहाँ सत्ता का कोई न कोई रूप अवश्य होता है । सत्ता के राजनीतिक केंद्र ही नहीं होते वरन धार्मिक, सामाजिक,,आर्थिक  और साहित्यिक -सांस्कृतिक  केंद्र भी होते हैं ,। और ये सभी  राजनीतिक सत्ता पर आश्रित होते हैं । इसलिए अनेक लेखक सत्ता से भीतरी गठजोड़ बनाए रहते हैं । हमारे देश में  सामाजिक सत्ता एक  ऐसा सत्ता-स्रोत  है , जहां से चुनाव के दिनों में स्वयम 'सत्ता "भी अपने लिए सत्ता की मांग करती है । जिन समाजों में  वास्तविक धर्म-निरपेक्षता नहीं होती ,वहाँ धर्म और मजहब भी सत्ता के स्रोत बन  होते हैं । पूंजी और मसल पावर की भूमिका तो हम जानते ही हैं । इनके विपरीत एक वर्ग और होता है  जो इन सबके प्रतिरोध का साहित्यरचता है ।  , वह सभी तरह की सत्ताओं और उनके द्वारा किये जाने वाले अन्यायों, उत्पीड़नों के विरुद्ध अपने-अपने स्तर पर  खडा होता है और सामान्य जन के कर्म-सौन्दर्य और संघर्षों को सामने लाता है तो शक्ति-संरचनाएं अपना स्वरुप बदलती है , बात और बात के कहने के ढंग यानी  दोनों स्तरों पर ।
   आजकल शहरी उच्च मध्य वर्ग के पास कुछ कहने को रह नहीं गया है ,न वहाँ जीवन का राग है न बड़े मूल्यवान संघर्ष । प्रकृति से दूर होता एक वस्तुभोगी-विलासी निष्प्राण , अलगाव   का शिकार  व्यक्तिनिष्ठ समाज कभी साहित्य -संरचनाओं के लिए उपयोगी नहीं रह जाता । इस वजह से जनपदों का महत्त्व बढ़ जाता है ।
त्रिलोचन जब अपने मित्र -कवियों का साथ छोड़ते हैं और स्वयम को पैदल बतलाते हैं तथा दूसरों को घोड़ों पर बैठा हुआ ,तो वे शक्ति-संरचना  के बदल जाने की ओर ही इशारा करते हैं ।  अपने जनपदों - स्थानीयताओं के  मूल जीवन-स्रोतों से कटे  साहित्यकार , स्त्री-पुरुष के बनते बिगड़ते सम्बन्धों की सीमित दुनिया के रूपात्मक उलटफेरों -सरोकारों या फिर सत्ता-शक्ति केन्द्रों के प्रति अपनी थोड़ी-बहुत नाराजगी को प्रकट करते रहते हैं ।










Saturday, 24 August 2013

चौरासी कोस की परिक्रमा देश में कई  जगहों पर लगती हैं लेकिन उनका चरित्र राजनीतिक नहीं होता । जो लोग जनता को " भेड़ "मानकर चलते हैं । उनको कर्नाटक के दो लोकसभा उप-चुनावों  के परिणाम पर गौर फरमा लेना चाहिए , तब मालूम पडेगा कि " काठ की हांडी "एक बार ही चढ़ती है , बार-बार नहीं । सब जान गए हैं कि यह परिक्रमा होती तो लोक-वेद  के अनुसार बैसाख-जेठ के महीनों में लगती । अब इसका राजनीतिक पुण्य पाने की हिकमत हो रही है , सब जानते हैं और सभी अनाज खाते हैं । हमारे ब्रज में भी चौरासी कोस की परिक्रमा लगती है ।हमारे कामां (कामवन ) में चौरासी खम्भे, चौरासी कुण्ड और चौरासी मंदिर प्रसिद्ध   हैं । वहाँ वैष्णव परम्परा के अनुगामी खूब जाते हैं बिना किसी राजनीतिक पुण्य के लिए । शायद यह आंकडा  जीव के  चौरासी लाख योनियों में भ्रमण  करने से बचने के रूपक में आया है । लोक-विशवास को भुनाने से नरक ही मिलता है । यह भी शास्त्रों में लिखा हुआ है ।
कविता भाव की कला है, विचार और विश्वदृष्टि के साथ के बिना, भाव  अपने समय से कटा रहता है । हमारे यहाँ  "रस सिद्धांत"' यद्यपि सामंत युग में विकसित हुआ किन्तु उसमें भाव के साथ जो विभावन व्यापार है उसके  आलंबन, उद्दीपन और  आश्रय की स्थितियों में युगांतरकारी परिवर्तन हुआ है । अब मध्यकालीन आलंबन विभाव  की जगह पर "मेहनतकश" आ गया है । कविता एक रूपक व्यापार भी है । जीवन की सौन्दर्यपूर्ण रचना । प्रेम,घृणा ,भय ,क्रोध सभी तो वर्ग - संबंधों और वर्ग-संघर्षों में काम करते हैं । प्रेमचंद  ने "जीवन में घृणा का स्थान " निबन्ध जब लिखा तो मूल में भाव तत्त्व ही था,जो विश्लेषण की प्रक्रिया से  विचारधारा के क्रम में वर्तमान-धर्मी हुआ ।  जुगुप्सा इसी का  स्थायी भाव है । जैसे हम पुरानी  कविता का नया पाठ करते हैं वैसे ही पुराने सिद्धांतों की प्रासंगिकता  को जांचते हुए उनका  नया पाठ करना चाहिए । रामविलास जी ने भी भाव तत्त्व को केंद्र में माना है शुक्ल जी ने तो माना ही है । हाँ, नगेन्द्र जी का 'रस सिद्धांत' फिर से सामन्ती प्रतिमानों को स्थापित करने की कोशिश थी  , जो सफल नहीं हुई । नामवर जी ने "कविता के नए प्रतिमानों' को  अमरीकी  नयी समीक्षा और आधुनिकतावाद के प्रमाणों से देखने की कोशिश की ,लेकिन "अनुभूति " से वे भी न बच  सके ।

Friday, 23 August 2013

हरयुग  में खरीददार रहे हैं
छोटा-मोटा बाज़ार भी रहा है
सीकरी रही है और संत भी

बिकने  से जो बचा है
उसी ने सत्य, शिव और सुंदर को
 रचा है                        
जोखिम उठाकर जो पैदल चला
त्रिलोचन की तरह
वही बच  पाया है 
बाज़ार में आदमी, कविता 
चीजों की तरह 
बोली लगाई जा रही है
 लोग बिक रहे हैं
कुछ लोग अब भी हैं जो
बिकने को तैयार नहीं
अपनी आन पै डटे हैं
इसीलिये बिकने से बचे हैं








Thursday, 22 August 2013

समय ऐसा आ गया है
कि अब वही बचा रहेगा जो
बचने की कोशिश नहीं करेगा
जो बचा ,सो मरा

सुनने में अच्छा लगता है
 यह सत्य पर  पूरा नहीं
अब जरूरत आ गयी है बचने की
जैसे घास को घोड़े से बचना पड़ता है
लडकी को उन जगहों से
उन आँखों से जिनमें
आग की झल निकलती है

अभी ऐसा फूल कहाँ जो
निदाघ के दाघ  से खुद को बचा सके
अंधेरा इतना गहरा है कि
रोशनी को लोग अन्धेरा कहकर
सत्ता की मुंडेरों पर
बन्दर की तरह उछल कर जा बैठे हैं

अभी बचने और बचाने
दोनों की जरूरत हैं नहीं तो नदी
पावस में भी बहने से इनकार कर देगी

ये फूल जिस मंजिल तक
आ पंहुचे हैं
फल आने में अभी देर है
जिन्होंने इन पौधों को लगाया है
उनके हाथ बंधे हैं
बंधे हाथों और फूलों का सही रिश्ता
जिस रोज
दोनों समझ जायेंगे
न बचने की जरूरत रहेगी
न बचाने की ।

































एक कहावत है-----"-पाप मगरे चढ़कर पुकारता है । "किन्तु जब स्वयं व्यवस्था पाप -रक्षक हो जाती है या कुछ लोग पाप के पक्ष में उतर आते हैं तो पाप विरोधियों को खडा होना पड़ता है । वैसे  , जैसे चोर के पाँव नहीं होते , वैसे ही पाप के भी पाँव नहीं होते ।
बहुत दिनों से अपने प्रिय कवि आत्मा रंजन के पहले कविता संग्रह----पगडंडियाँ गवाह हैं ------ पर कुछ कहने का मन बन रहा है पर -गृह कारज नाना जंजाला ---- और कभी-कभी यह फेस बुकिया  संवाद - रस  रास्ते से भटकाता रहता है । एकाग्र-चित्त होकर ही कविता पर कुछ सार्थक कहा जा सकता है । यों तो आलोचना की भी एक बंधी-बंधाई शब्द-सत्ता बन चुकी है , जिसमें किसी भी कविता को कैसे भी टांका जा सकता है , कोई एक कसौटी तो होती नहीं । जैसे मेरी पसंद उस कविता की  है जो समय के अंतर्विरोधों को उदघाटित  करती हुई अपने समय और स्थानीय कर्म-सौन्दर्य को एक समग्र विश्व दृष्टि के साथ प्रस्तुत करने की रूप-सम्पन्न शिल्प-क्षमता रखती हो । स्थानीयता एक तरह से कवि -कर्म की विश्वसनीयता  और जीवन मूल्यों की साधारणता का जमीनी परिप्रेक्ष्य है ,जिसके बिना कवि की बातें हवा में रहती हैं और वह किसी भी अखबार की खबर को कविता में बदलता रह सकता है । वैसे अखबार की खबर से कविता रची जा सकती है ,पर वह  अपनी मिट्टी में सनी हुई हो , उसका तथ्यात्मक ही नहीं वरन भावात्मक और सौन्दर्यात्मक संयोजन भी हो । कविता जीवन का सबसे सरस व्यापार है । जब मैंने आत्मा रंजन की कविताओं को पढ़ा तो लगा कि यह कवि सही मायने में अपनी जमीन पर खडा है ।
   हिमाचल प्रदेश के पहाडी जीवन की कर्म-निष्ठा यहाँ इस समय के भावात्मक और वैचारिक सत्कर्म की द्वंद्वात्मकता में उझल-उझल कर आती है जैसे पहाड़ से झरना कभी मंद-मंद , तो कभी पूरे वेग से मैदान पर उतरता  है ।वे कविता बच्चों और उनके खेल पर लिखते हैं किन्तु वहीँ से अपने समय की आहट सुनाई देने लगती है जैसे शिमला के माल रोड पर खेलते बच्चों से प्रश्नाकुलित कवि मन , खेल और बच्चों तक आकर ही ठहर नहीं जाता । एक जगह वे इस समय के आभिजात्य को धता बताते हुए कहते हैं -------"कब,कहाँ,  क्यों ,कैसे से बाखबर माल / नहीं जानता /मौसम के कहर के बावजूद /मील भर दूर /कब,क्यों,कैसे महक उठा एक झाड/ खिल उठी लकदक कुज्जी की /दूधिया कलियाँ । "
अपने से होती हुई ये कवितायें दूसरों के बारे में बहुत कुछ कहती हैं पूरे शब्द-सलीके के साथ । अपनी भाषा-बोली का  आस्वाद इसे आत्मा रंजन की कविता बनाता है ।उनको बहुत बहुत बधाई 








इतिहास की परिस्थितियों को समझते हुए रास्ता निकलता  है । चीजें इतिहास की गोद में पलती हैं जैसे बच्चा माँ की गोद में । 
जरूरत इस बात की है कि हम उसके सांस्कृतिक पाठ को और उसके सारतत्व को सामान्य जन तक पहुचाएं । हमारे अपने लोगों को ही तुलसी से परहेज रहता है फिर क्या किया जाय ? जब अपने कुनबे में फूट  होती है तो शत्रु पडौसी उसका लाभ उठाते हैं । तुलसी का रूढ़िवादी धार्मिक पाठ ही सामान्य जन के समक्ष रहता है । जबकि तुलसी आज भी जन-जन के ह्रदय में बसा है ।
मालूम हुआ कि कँवल भारती ने वामपंथी नेतृत्त्व को 'रूढ़िवादी ' कहा है । अभिव्यक्ति की आज़ादी है , कुछ भी कहा जा सकता है । वामपंथियों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए अपना कर्तव्य निर्वाह किया था  , जो उनको करते रहना चाहिए । वामपंथी कोई --कुम्हडबतियाँ ---नहीं है जो तर्जनी दिखाने मात्र से मुरझा जायेंगे ।
हमारे सच्चे संत कवि  तुलसीदास ने  कपट-वेशी जग-वंचकों   की खबर लेते हुए सचाई को खूब  उजागर किया है । पता नहीं रोज रामायण पाठ कराने और करने वाले लोग कब इस हकीकत को समझेंगे ,जो इनसे और इनकी राजनीति करने वालों से राष्ट्र को कब मुक्ति मिल सकेगी । वह  चौपाई तो सभी को मालूम हैं --------" लखि सुवेश जग वंचक जेऊ । वेश प्रताप पूजिहहि तेऊ ॥ उघरही अंत न होहि निबाहू । कालनेमि जिमि रावण राहू ।।" लेकिन जन-मन से उघडे तब कोई बात बने ।

Wednesday, 21 August 2013

अनुभव के खेत में सबसे अच्छी फसल होती है । जहां अनुभवों की व्यापकता नहीं ,वहा कभी अनुभूति  के सहज पके रसीले फल नहीं लगते ।

Tuesday, 20 August 2013

कल शाम को अलवर में लगभग एक घंटे तक मेघ जमकर बरसे ---कडक -कडक कर । याद आई ---घन घमंड जिमि  गरजत  घोरा । यह सावन का आख़िरी दिन है । आज से भादों लग रहा है ।  बरसात के क्रमिक उतार चढ़ाव को देखकर अनुभव के आधार पर लोक में कहावत बनी -----सावन कड़का झड़ करै , भादों कड़का  जाय ।
                                             जो कोई कड़के क्वार में , नाज़ कूकरा खाय । । 
दिवाली तो हमेशा से सेठ-साहूकारों  का त्यौहार रहा है अग्रवाल भाई जी । उसमें संत कहाँ से आ गए ।  सच्चे  संत का स्वभाव समरसतावादी  होता है । फिर , कहावत तो कहावत है जहां जिस रूप में प्रचलित हो जाय । हम तो विचित्र स्वभाव वाले लोग हैं जहां अपमान करने के अर्थ में ----हिंदी कर दी ----जैसा मुहावरा चल निकला और मजबूरी का नाम महात्मा गांधी हो गया ।
'निराला की  जय तुम्हारी देख भी ली' ----  कविता पर विजेन्द्र जी ने सवाल उठाया कि --निराला ने मृत्यु की रेखा को नीली क्यों कहा , जबकि   काली लिखने से मृत्यु की भयावहता का बोध होता । मुझे इसका उत्तर यह समझ मीन आया ----पहली बात तो यह है कि कवि मृत्यु को देखते हुए भी अभी जीवित  संसार में रह रहा  है । उसके संज्ञान में जीवन है जहाँ मौत जैसी मारक चोट पड़ते हुए भी वह उसे बर्दाश्त कर रहा है , आत्मघात नहीं कर रहा । और चोट का रंग नीला ही होता है , काला नहीं । जब अध्यापक बेंतों से छात्रों को पीटा करते थे तो शरीर में नील उपड आती थी । आपकी स्वयं की एक लम्बी कविता है ----उठे गूमड़े नीले । मैं इसको इसी अर्थ में देखता हूँ ।
इतिहास बोध और  चीजों के आपसी रिश्तों को उनकी द्वंद्वात्मकता में उठाने पर ही चिंतन को सही दिशा मिलती है ।  ,हमारे देश में इतनी विविधता है कि वह ही कई बार एकता के लिए ख़तरा बन जाती है । फिर तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या में रोजगारों की आपाधापी मचती है । हमारे देश की  यह बदकिस्मत रही कि जब हम व्यापारिक पूंजीवाद से सम्पन्न हुए तो हमारी विविधता और विभाजनकारी मानसिकता ने देश को अंगरेजी उपनिवेश बना दिया । इसका परिणाम यह हुआ कि यहाँ जिस तरह का देशज विकास --औद्योगिक---- होना चाहिए  था ,वह अवरुद्ध हो गया । अंग्रेजों की आधीनता से पहले हमारी इतनी कृषि -निर्भरता नहीं थी जितनी अंगरेजी शासन ने हमारी बना दी । अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ के लिए हमको अलौकिकता  का पाठ   कुछ ज्यादा ही पढ़ा डाला  । इससे हमारे यहाँ अंध-राष्ट्रवादी ताकतों को आसानी से अपनी जगह हासिल होती गयी । हिन्दू और मुसलमानों  के नाम से विश्वविद्यालय खोले गए ,जो राष्ट्रीयता की दृष्टिसे अलगाव को मजबूत करते हैं । दूसरे , हमारे यहाँ राष्ट्रीय नवजागरण का काम पूरा नहीं हुआ, जिसका खामियाजा   हमको आज तक भुगतना पड़ रहा है । स्थानीयता सारी दुनिया के समाजों में है लेकिन वह राष्ट्रीयता के मेल में है । आदमी अपनी स्थानीयता को प्यार करता है यह उसकी स्वभावगत क्रिया है । जरूरत इस बात की है कि स्थानीयता का राष्ट्रीयता से अन्तर्विरोध न हो । लेकिन जब राष्ट्रीयता ही विकलांग अवस्था में हो, तब मुश्किल बढ़ जाती है । कोई देश अपने आप राष्ट्र नहीं बनता उसकी संस्कृति और एकदेशीयता उसे राष्ट्र में बदलते हैं । 
लाला जगदलपुरी बस्तर की आदिवासी लोक संस्कृति के निजंधरी पुरुष थे ।  जगदलपुर वासी  कवि- मित्र विजय सिंह के बुलावे पर 'सूत्र सम्मान 'के आयोजन में  मेरा दो बार जगदलपुर जाना हुआ । एक बार लाला जगदलपुरी  से भी विजय सिंह जी के साथ उनसे भेंट करने का सुख प्राप्त किया । दिल्ली से बहुत दूर रहकर बिना कोई सम्मान -पुरस्कार की कामना किये अपने काम में लगे रहने की  सीख उनसे आज  ली जा सकती है । अपनी जगह को व्यापक विश्व दृष्टि के साथ साधे रहने का अभ्यास बहुत कम लोगों को होता है । यह लाला जगदलपुरी को था । इस भेंट में केशव तिवारी ---आज के सर्वाधिक चर्चित कवि ----का साथ भी मुझे मिला । उनको ही उस वर्ष " सूत्र सम्मान " से नवाज़ा गया था । लाला जी की स्मृति को प्रणाम ।
आज अभी केशव भाई के मार्फ़त  जमुई खां 'आज़ाद' का अवधी में  आज के यथार्थ पर रचा गीत सुना  । गाया है युवा हिरावल समूह  ने ।  इसमें  भीतर तक  झकझोरती  है हमारे  लोक की सामूहिकता की  ताकत , जो संगीत की लोक धुन और हारमोनियम ,ढोलक ,झांझ, और चिमटा  की समिश्रित लयकारी में रोमांचित करता है । ढोलक की थाप पर गीत आगे बढ़ता जाता है । जनेवि के विद्यार्थी इसको जिस तन्मयता और भावुकता से सुन रहे हैं वह बतलाता है कि आज भी  ज़माना अपनी जमीन की खुशबू को सूंघना चाहता है । हमारी जनपदीय भाषाओं में आज भी ह्रदय को हिला देने की ताकत है बशर्ते कि हमारी आत्म समृद्धि और अपनी तैयारी भी हो । हिरावल ग्रुप को हार्दिक बधाई और केशव जी को धन्यवाद ।
रक्षा बंधन के दिन और शुभ मुहूर्त के विवाद के चलते एक कहावत के रूप में दिया गया लोक-निर्णय याद हो आया -------" सदा दिवारी साह की तीजै दिन त्यौहार । "

Monday, 19 August 2013

आज राखी का त्यौहार है । रक्षा सूत्र का एक दिन । हर साल छोटी बहिन आती थी इस बार नहीं आ पाई  तो राखी भिजवा दी । बहरहाल , जब कभी इस त्यौहार की शुरुआत हुई होगी तो संघर्ष के बीच या संघर्ष को मिटा देने के उद्देश्य से इस प्रथा का प्रचलन हुआ होगा । आरम्भ आरंभिक दो वर्णों के बीच से हुआ । शुरू में सामाजिक विभाजन चार वर्णों में नहीं हुआ था , केवल दो ही वर्ण थे । कदाचित वह वर्ण(रंग) विभाजन रहा होगा । श्यामल-गौर का जिक्र आज भी बार बार आता है । आरम्भ के वर्ण हैं ब्राह्मण-क्षत्रिय । उनके  बीच सामाजिक तौर पर रिश्ते के स्तर तक आवाजाही थी । जो कालान्तर में जब वर्ण जन्मना  कर दिए गए और सामंतवाद मजबूत होने लगा  तो कुछ काल तक मिश्रित अवस्था अवश्य रही होगी । परशुराम और क्षत्रिय संघर्ष की कथा इसका प्रमाण उपलब्ध कराती है । लम्बे संघर्ष  के बाद दोनों वर्णों में समझौता हुआ । उपनिषद काल में क्षत्रिय भी उपनिषदों की बहसों में भाग लेते थे और अपना विमत प्रस्तुत करते थे । अनेक क्षत्रिय विचारक हैं जो भौतिकवाद को रेखांकित करते हैं । और अध्यात्मवादी विचारधारा के विरोध में खड़े होते हैं इन्ही परिस्थितियों में ब्राह्मण-क्षत्रियों के  बीच समझौता हुआ और एक अवसर पर ब्राह्मणों ने रक्षा करने का सारा दायित्व क्षत्रियों को  सौंप दिया । उसी की याद में आज तक ब्राह्मण , रक्षा बंधन का दायित्व निभाते हैं ।
        मैंने अपने बचपन में खूब देखा है जब हमारे गाँव के सभी ब्राह्मण परिवार हमारे यहाँ राखी बाँधने आते थे और उसके बाद ही हमारी घरेलू राखी मनाई जाती थी । इसके दक्षिणा स्वरुप अन्न का दान किया जाता था । ब्राह्मण राखी के रूप में सिर्फ एक धागा होता था जिसके बीच में आक की रंगी हुई रुई का टुकडा लगा रहता था । जिन्दगी में सहजता की प्रमुखता थी आडम्बर की नहीं । हमारे  दादाजी हमको सभी का चरण स्पर्श करने का बाकायदा आदेश देते थे और वे हमको आशीर्वाद देते हुए दाहिने हाथ में स्वस्तिवाचन करते हुए राखी बांधते थे । समझ में कुछ नहीं आता था । बीच बीच  में हुक्के के लिए चिलम भी भरकर लानी पड़ती थी । हमारी बैठक  पर सभी जातियों के हुक्के-तम्बाकू ,पानी और अगिहाने की आग का चौबीस घंटे इंतजाम रहता था ।
इसी तरह पितृ -सत्तात्मक व्यवस्था में बहिन भाई के बीच संपत्ति के विवाद का एक मनोवैज्ञानिक समझौता करने के लिए रक्षा बंधन की शुरुआत हुई होगी । बाद में यह एक प्रथा की तरह चल निकला ।  आज बाज़ार के युग में चीन तक  से  राखी बनकर
हमारे देश में आ रही हैं और वर्गों के अनुसार  लोग चांदी सोने की राखियों का प्रयोग  करते हैं । राखी उद्योग चलाने वाले लोग करोडपति से लगाकर अरब पति तक बन गए हैं । राजनीति में भी राखी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है । आज ही मीडिया में खबर है कि हमारे प्रदेश के मुख्य मंत्री के लिए इक्यावन फीट लम्बी राखी बनाई गयी है । बहरहाल, सभी भाई-बहिनों को शुभकामनाएं ।








सामाजिक संरचना का गहरा असर रहता है लम्बी कालावधि तक, जब तक कि कोई बहुत बड़ा आन्दोलन व्यापक पैमाने पर इसके लिए न छेड़ा  जाय । हमारे देश की ही नहीं , दुनिया भर की राजनीति और शासन  -प्रबंध इस अनिवार्य बुराई से प्रभावित रहते हैं । इसीलिये उन्नीसवीं सदी  में व्यापक पैमाने पर समाज सुधार आन्दोलन चले । राजनीति, समाज नीति से बड़ी नहीं होती । सभी पार्टियों में जाति , सम्प्रदाय , अंचल , भाषा , बोली , गोत्र , पाल और वर्ग के आधारों पर आंतरिक गुट बने रहते हैं । कम्युनिस्ट  पार्टियां भी अपनी सामजिक- आर्थिक - सांस्कृतिक बनावट से कैसे अछूती रह सकती हैं ? यथार्थ और आदर्श में यह दूरी हमेशा रहती है । जब काम निकालना होता है तो 'समता के सिद्धांत' को मानने वाला भी असली बिंदु पर आकर कमजोर पड़  जाता है । फिर भी सोच-विचार और आचरण से इन स्थितियों में बदलाव आता है ।
कहते हैं जब गीदड़ की
मौत आती है तो
वह गाँव की तरफ भागता है
गीदड़ चाहता है कि
जंगल के बेर उसके
कहने से पक जाँय
पर जंगल अपनी
चाल से चलता है

हिंडोले सावन में
पावस की फुहारों
और मेघ-घटाओं के
संगीत के बिना
नहीं सजते

आल्हा जेठ में
किसान तभी गाता है
जब फसल उठाकर
घर में ले आता है
सोरठ आधी ढल जाने पर
अपने सुरों को
सारस के पंखों की तरह खोलता है


पर यह कैसा समय है
जब समय की पुडिया बनाकर
कुछ लोग उसे
चूरन-चटनी की तरह
बेचने में लगे हैं
खेतों की अभी जुताई भी नहीं
और उधर फसल के
गीत वे लोग गा रहे हैं
जिन्होंने कभी
हल की मूंठ भी नहीं पकड़ी ।










Sunday, 18 August 2013

कुँवर रवीन्द्र की  कला स्वयं में कविता ही  है । वे  दोनों के आत्मीय रिश्ते को उजागर करने वाले कवि -कलाकार  हैं । उनके रंग-रेखाओं में भावनाओं का उदभावन बहुत सजगता और सहजता से होता है ।  बहुतों की पसंद है वे , इसलिए उनके पास अक्सर कविगण अपने काव्य संग्रह भेजते रहते हैं , यह खुशी की बात है ।वे  इसके काबिल हैं और पात्र भी । चित्र-कर्म चित्त को इस तनाव भरी दुनिया में राहत पंहुचाने का काम करता है जैसे अच्छा और मनमोहक संगीत और ताजमहल ।

Thursday, 15 August 2013

इस समय
आज़ादी का दिन है
और प्याज है
क्या दोनों में कहीं
जनता की आवाज है ?

हमें  अपने देश पर नाज़ है
यहाँ कुछ सरपरस्त हैं
कुछ सरताज हैं ।
भंवरों में फंसा एक जहाज  है
भरोसा यही है कि
हमारी रोटी संग की जुगलबंदी
प्याज पृथ्वी पर बची रहेगी ।

प्रेम को बचाने वाले
कवियों से निवेदन है कि
आओ ,बचाना है तो पहले प्याज को बचाओ
यह गरीब की रोटी का आस्वाद है ।








सत्ता -चरित्र

एक कहानी थी
'तिरिया चरित्तर'
लोग इसे सच माने बैठे थे
वे लोग भी जिनके चरित्र
कंटीले बियाबानों की तरह नंगे होते हैं
चरित्र की वहाँ बहुत चर्चा थी
जहां चरित्र नाम की चींटी भी नहीं पाई जाती

सबने देखा है कि 
तरु के
लिपटती है लता और
तरु लिपटने देता है
यह  शक्ति का केंद्र
जहां भी होगा
यही होगा
यह चरित्र नहीं प्रकृति है

चरित्र का पता तब चलता है
जब हम फूलों के बगीचे में हों
और फूलों को खिलने  दें
जब हमारे हाथ में लगाम हो और
हम घोड़ों को उसी राह पर हांकें
जो मंजिल तक जाती है

जब हम रक्त की धारा पर खड़े हों और
रक्त का ऐसा इम्तिहान न लें
कि रक्त को पानी पानी कहकर
उसकी शिनाख्त को बदल दें

सत्ता रक्त- पिपासु कब हो जाय
पता नहीं चलता
उसका चरित्र कब करवट ले जाय
पता नहीं चलता
शेर जंगल में अपने शिकार को
घात लगाकर पकड़ता है
सता हर क्षण घात लगाती है
उसके लिए कोई दिन निर्घात नहीं होता

ये विज्ञापन
साधारण खरगोशों के लिए
जाल की तरह फैला दिए गए हैं
खरगोश और जंगल के रिश्ते को
मिटाने की कोशिशें जारी हैं

जंगल का चौधरी
एक खूंख्वार  बर्बर  शेर
समुद्र पार
खरगोशों के जंगल में
स्वच्छंद विचरण पर
लगातार घात लगाये
पूरी चौकसी बरत  रहा है

सताएं सभी
आदमखोर होती हैं
आदमी की सत्ता आने में अभी देर है । 


































































Wednesday, 14 August 2013

आज़ादी को मैंने
छियासठ साल पहले
खेत की मैंड पर
खड़े नहीं देखा
वहाँ कुछ पन्ने जरूर थे
जो कुछ बतला रहे थे
जैसे बहका रहे हों
कोई लालीपॉप  देकर
बच्चों को

बहकावा सतत  जारी है
जिनके  हाथों में फूल हैं
वे बगीचे उन्होंने खुद नहीं लगाए
जिनके हाथों में पताकाएं हैं
वे नहीं जानते कि
इनके निर्माता
इनको फहराने वाले नहीं हैं

जो कुछ है उसमें सच की मात्रा
इतनी कम है कि
बार बार आज़ादी आने का
 शोर चौराहों पर
मचता है और
आज़ादी है कि हर बार
अपनी नई पौशाक में 
महलों में प्रवेश कर जाती है
रह जाते हैं महरूम
जो अपने पैरों पर चल कर
अपनी मंजिल तक पहुँचते हैं
फिर एक साल और बीतने का इंतज़ार करते हैं
शुभकामनाओं की प्लेट में कुछ मिल जाए । 
पाताल भुवनेश्वर हैं जैसे उत्तराखंड में
वैसे ही हैं छत्तीसगढ़ में
कोटमसर की गुफा
सिरजा है प्रकृति ने
अपने आवासों को सबके लिए
इन पर किसी एक धन्नासेठ का कब्जा नहीं
प्रकृति से बड़ा उदार और
विशाल ह्रदय कौन है
इस धरती पर


पाताल भुवनेश्वर में
मैं और केशव भाई
इस अंधी गुफा में नीचे नहीं उतरे थे
जैसे पहली बार कोटमसर में मेरी
सांस फूल गयी थी
पर कविमित्र शाकिर अली , विजय सिंह के साथ
पैठ गुए थे गुफा में
कविमित्र अग्निशेखर

दूसरी बार फिर  बस्तर जाना हुआ
तो नाट्यकर्मी, कवि और सफल आयोजक विजय  सिंह
फिर से ले गए थे कोटमसर 
दंडकारण्य
इस बार तो गुफा के आकर्षण ने
खींच लिया था अपने भीतर


ऐसा लगा जैसे उत्तराखंड
का पाताल भुवनेश्वर
छत्तीसगढ़ में कोटमसर बन
अपना रूप परिवर्तन कर
समझा रहा था
कि आदमी को अभी भी
हमसे बहुत कुछ सीखने की जरूरत है ।

सही अर्थ में स्वतंत्र वह होता है , जो मन से स्वतंत्र हो । हम स्वतंत्र होकर भी मन से गुलाम बने रह सकते हैं । स्वतंत्रता दिवस पर मन  की स्वतंत्रता पाने के प्रयासों की कामना और बधाई ।
कवि मित्र  केशव भाई के साथ पहली बार मैंने  २ ० ० ९ में कविवर सुमित्रा नंदन पन्त की जन्मभूमि उत्तराखंड के कुमायूं अंचल के कौसानी कस्बे  की यात्रा का आनंद लिया । लोभ इस बात का भी था कि वहीं पर वह अनासक्ति आश्रम  है जहां महात्मा गांधी कुछ समय के लिए विश्राम हेतु देवदारुओं की ऊंची और शान्तिदायिनी छाया तथा नगराज हिमालय की तापसी  एवं मनोरम वादियों के बीच ठहरे थे । वहीं उन्होंने ---अनासक्ति योग --- की रचना की थी । अनासक्त होकर कोई काम करना कितना कठिन होता है , इस रहस्य को जब रचनाकार या   कोई भी व्यक्ति जान जाता है तो बड़ी रचना का जन्म होता है । आसक्ति मोह को जन्म देती है जिसे हमारे यहाँ सकल व्याधियों का मूल कहा गयाहै । तुलसी जैसे महान कलाकार ने कहा -----मोह सकल व्याधिन कर मूला । बहरहाल, उस समय भाई महेश  पुनेठा ने अपने साथियों के साथ हमारी बहुत आबभगत की अल्मोड़ा में । यहीं मैंने निर्मल वर्मा की किताब एक किताब घर से ---चीड़ों पर चांदनी---खरीदी । शायद यहीं केशव जी ने तीनों ---तार सप्तक---- खरीदे । यहाँ हमने बस स्टैंड को स्टेशन कहते सुना  । हम तो स्टेशन रेल के ठहराव स्थल को कहते हैं । यहाँ पहली बार पहाडी ---नौले--- जलस्थान को देखा  । पहाड़ पर लालटेन तो खूब हो सकती हैं किन्तु पहाड़ पर कूप स्थल की हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे । यहाँ से दूसरे  दिन  हम पहाडी तिर्यक घूमों के  अचरज कारी परिदृश्यों से गुजरते हुए पुनेठा जी की कर्मस्थली गंगोली हाट ---- गए । इस शब्द को सुनते ही विजेन्द्र जी की मशहूर कविता गंगोली याद हो आई । ये श्राद्धों के दिन थे यानी क्वार का महीना । भांग की चटनी  पहली बार यहीं भाई राजेश पन्त के घर पर उँगलियों को चाटते हुए खाई । रात को पुनेठा जी की ससुराल में ठहरे और उनके श्वसुर साहब से पहाडी जीवन के विपत्तिकारी किन्तु आह्लादक जीवनानुभवों को कान लगाकर सुनते रहे । कौसानी में कविमित्र और बेहद संवेदनशील विचारक साथी कपिलेश भोज से मिलना इस यादों की एक मंजिल है । महाकवि पन्त का स्मारक उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं लगा । यूरोप होता तो बात कुछ और ही होती ।इन्ही अपने पहाडी जीवन के अनुभवों से गुजरते हुए कभी पन्त जी ने लिखा था -----छोड़ द्रुमों की मृदु छाया/, तोड़ प्रकति से भी माया / बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दू लोचन । सच्ची कविता अनुभव की गहरी गलियों से होकर गुजरती है । यादें और बहुत सी हैं पर फिलहाल इतना ही ।

Tuesday, 13 August 2013

आज उत्तराखंड के कुमायूं अंचल की  वह बात  मुझे याद आ रही है ।वहां मेरे एक बेहद सरलमना दोस्त और कवी श्री महेश पुनेठा रहते हैं ।  वे  कुशल अध्यापक और निस्पृह संगठनकर्ता है । उनके यहाँ  श्रीमती पुनेठा के हाथों का बना पहाडी खाना खाने का सौभाग्य मुझे पिथोरागढ़ में मिला है , बेटे अभिषेक पुनेठा के साथ । कवि , सफल संगठनकर्ता और सहज मित्र श्री पुनेठा और उनके साथियों के सहयोग से  नागार्जुन और केदार जन्म शताब्दी के प्रसन्न अवसर पर पिथोरागढ़ में एक गंभीर आयोजन उन्होंने  किया था । मुझे भी इसमें शिरकत करने का अवसर उन्होंने  सुलभ कराया था । इसमें प्रसिद्ध  कथाकार और समयांतर  के सम्पादक श्री पंकज बिष्ट भी शामिल हुए । वहाँ पहाड़ों और पहाडी जन-साधारण की ऊंचाइयों को देखने का सुखद अवसर भी मिला । पहाड़ की विशेषता होती है कि वह जितना  ऊँचा होता है उतना ही गहरा और विस्तृत भी । यह बोध उसके पास जाकर जितना होता है उतना दूर से नहीं । 

Monday, 12 August 2013

मेरे जिगरी दोस्त श्री यादव शम्भु ने जाति -बिरादरी के सवाल को लेकर एक बहस चलाई ,जिसमें संयोग से मैंने भी अपना मत रखा । उससे उनको कुछ गलतफहमी भी हुई , जिसको मैंने तुरंत दूर भी कर  दिया । दरअसल , निरपेक्षता जीवन का एक बड़ा और वैज्ञानिक मूल्य है , वह अभ्यास में आते-आते ही आता है औरजिस समाज में  रोटी-बेटी के व्यवहार में मूलगामी परिवर्तन नहीं आए हों ।वहां तो निरपेक्षता में आने तरह के अवरोध आते हैं ।  मेरे अपने जीवन की घटना है । मेरा तबादला राजस्थान के एक छोटे कस्बे  के कालेज में हो गया था । उस समयहमारे प्रदेश के  एक ब्राह्मण शिक्षा मंत्री थे । मेरे एक नज़दीकी 'ब्राह्मण ' दोस्त ने अपने एक रिश्तेदार के माध्यम से मेरा तबादला निरस्त कराने की कोशिश की तो सवाल  आया कि मेरी जात क्या है ? चूंकि मैं मंत्री की जात से नहीं हूँ , इसलिए साफ़ मना कर दिया गया । ऐसे ही एक बार पुलिस कार्यालय में मैं अपने पुत्र के पासपोर्ट के काम से कई बार चक्कर लगा-लगा कर लगभग थक चुका था । अचानक एक दिन मुझे वहाँ घूमते  हुए मेरे एक जानकार रिश्तेदार और  बिरादरी भाई ने देखा और पूछा कि क्या बात है , मैं आपको कई दिनों से यहाँ आते और लौट जाते देख रहा हूँ । मैंने उनको सारी व्यथा-कथा सुनाई तो उन्होंने तुरंत कहा कि लाइए मुझे बतलाइये क्या करना है ? अपना बिरादरी भाई इस कुर्सी पर है । आप सच नहीं मानेंगे कि तुरंत काम हो गया ।  इससे मेरे मन पर भी  सापेक्षता के  असर की एक रेखा खिची । हो सकता है दूसरे लोग कुछ दूसरी तरह से अपने काम निकाल लेते हों , लेकिन यह हमारी निजामी वास्तविकताएं हैं जो हमारे कमजोर मन को प्रभावित किये बिना नहीं रहती । मैं निरपेक्षता का ढोंग चाहे कितना ही क्यों न करूँ ? कोशिश जरूर करनी चाहिए कि वास्तविक जिन्दगी में भी हम अपनी बहुत बड़ी बिरादरी बनाएं । बड़ी और समझदार बिरादरी बनेगी तो एक दिन पूरा देश ही एक बड़ी बिरादरी में बदल जाएगा । जैसे हमारे लेखक भाई कँवल भारती के प्रकरण में हुआ है । इसे देखकर मन को बड़ी तसल्ली मिलती है कि हाँ अभी बहुत - कुछ बचा हुआ है ।
अब बात को आप सही ठौर-ठिकाने पर ले आये हैं । निरपेक्षता जीवन का एक वैज्ञानिक मूल्य है , वह अभ्यास में आते-आते ही आता है और जब रोटी-बेटी के व्यवहार में मूलगामी परिवर्तन नहीं आए हों । मेरे अपने जीवन की घटना है । मेरा तबादला राजस्थान के एक छोटे कस्बे  के कालेज में हो गया था । उस समय एक ब्राह्मण शिक्षा मंत्री थे । मेरे एक नज़दीकी दोस्त ने अपने एक रिश्तेदार के माध्यम से मेरा तबादला निरस्त कराने की कोशिश की तो सवाल  आया कि मेरी जात क्या है ? चूंकि मैं मंत्री की जात से नहीं हूँ , इसलिए साफ़ मना कर दिया गया । ऐसे ही एक बार पुलिस कार्यालय में मैं अपने पुत्र के पासपोर्ट के काम से कई बार चक्कर लगा-लगा कर लगभग थक चुका था । अचानक एक दिन मुझे वहाँ घूमते  हुए मेरे एक जानकार  बिरादरी भाई ने देखा और पूछा कि क्या बात है , मैं आपको कई दिनों से यहाँ आते और लौट जाते देख रहा हूँ । मैंने उनको सारी व्यथा-कथा सुनाई तो उन्होंने तुरंत कहा कि लाइए मुझे बतलाइये क्या करना है ? अपना बिरादरी भाई इस कुर्सी पर है । आप सच नहीं मानेंगे कि तुरंत काम हो गया ।  इससे मेरे मन पर भी  सापेक्षता के  असर की एक रेखा खिची । हो सकता है दूसरे लोग कुछ दूसरी तरह से अपने काम निकाल लेते हों , लेकिन यह हमारी निजामी वास्तविकताएं हैं जो हमारे कमजोर मन को प्रभावित किये बिना नहीं रहती । मैं निरपेक्षता का ढोंग चाहे कितना ही क्यों न करूँ ? कोशिश जरूर करनी चाहिए कि वास्तविक जिन्दगी में भी हम अपनी बहुत बड़ी बिरादरी बनाएं ।
युद्ध करना ही यदि समस्या का हल होता तो हम रोजमर्रा की जिन्दगी में सोने और खाने के अलावा हर क्षण युद्ध करने में ही तल्लीन रहते  । युद्ध कहीं और किसी भी स्थिति में आनंददायी नहीं होता ,जब तक कि पानी सिर से ऊपर नहीं निकल जाय । संघर्ष और युद्ध के बीच एक बारीक सी रेखा होती है । इसलिए संघर्ष तो हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी का अंग हो सकता है , युद्ध नहीं । महाभारत से बड़ी युद्ध - कथा शायद ही कोई और युद्ध कथा हो , किन्तु उसके अंत में भी संवाद और शान्ति ही बचती है ।
सच्ची और सही आलोचना का विकास तभी संभव हो पाता  है , जब व्यक्ति में सही को सही कहने और सुनने का साहस आ जाय । यह साहित्य में ही नहीं जीवन में भी जरूरी है । सही मायने में लोकतंत्र का विकास आलोचना करने और सुनने का माद्दा विकसित करने से ही होता है बशर्ते कि निजी पूर्वाग्रहों से बचकर चला जाय । पसंदगी में जीवनानुभवों की बहुत बड़ी भूमिका रहती है । वे जितने व्यापक होंगे ,आलोचना की जमीन उतनी ही पुख्ता होगी ।

Sunday, 11 August 2013

अट्ठारह सौ सत्तावन
अब कोई सन-संवत नहीं
हमारी आत्मा की एक धधकती ज्वाला है
वह लड़ाई है भीतर से भग्न कर दिए गए
एक चालाक , धूर्त , धोखेबाज आधुनिकता से
भोले किसान योद्धाओं की
जो नहीं जानते थे कि
सामने एक गहरी खाई और कुए हैं -----अंधकूप

वह विक्षोभ है असहनीय गुलामी के विरुद्ध
वह आक्रोश है पराधीनता में जुल्मों के विरुद्ध
वह गुस्सा है चापलूसी से पाए ओहदों के विरुद्ध
वह असंतोष है अपनी जड़ों से कट जाने के विरुद्ध


उसमें सब कुछ सही न हो फिर भी
मानवता के भाल को उन्नत बनाये रखने की
 एक छोटी सी कोशिश जरूर है ।
उसकी याद  आज भी
एक रास्ता दिखलाती है ।
कि हम अंधेरी गलियों में भटकने से
मुक्ति पा सकते  हैं

जिस शिकंजे में हमको फिर से
कसा जा रहा है
खोल सकते हैं उसकी
उलझी हुई गुत्थियों को भी ।

प्रेम चंद  जी ने तो अपने जीतेजी खूब  झेला किन्तु आज की पीढी में ऐसा दमखम बहुत कम नज़र आता  है । वह अपनी आलोचना नहीं, केवल प्रशंसा चाहती  है और वह भी कालजयी रचनाकार होने की । इसके लिए सभी तरह की जुगत भिडाने की कला में वह पारंगत हो चुका है ।  कहते है कि हमारे महान कथाकार प्रेम चंद जी की ,  शवयात्रा में गिनेचुने लोग थे और जो उसे देख रहे थे वे कह रहे थे कि कोई मास्टर मर गया है । साधना , तपस्या जैसे शब्द , आज हमको पिछड़ेपन के खाने में रखते हैं । बाजारवादी विज्ञापन और आत्मकेंद्रिकता का गहरा असर हमारे मन पर पड़ता हुआ नज़र आ रहा है । 
विचारधारा गुड का पुआ नहीं है कि उसका स्वाद हरेक को एक जैसा ही मिले । उसे चबाना पड़ता है और सीढीनुमा जिन्दगी से तार जोड़ना पड़ता है । इसी में मत -भिन्नता हो जाया करती है । विचार धारा एक हो सकती है , लोग तो अनेक और तरह तरह के हैं । एकता तो हिन्दू - मुसलमानों  में इस आधार पर होनी चाहिए कि दोनों ही एक मिट्टी के बने हुए इंसान हैं किन्तु जीवन-संरचना की विविधता ने उनके बीच एक रेखा खींच रखी  है । विज्ञान का ज़माना भी इस रेखा को मिटाने में उतना सफल नहीं हुआ है , जितना मारक हथियार बनाने में । इंसान एक होता तो विचारधारा की शायद जरूरत ही न पड़ती ।
सावधान
होशियार,
 शहंशाह की सवारी
आ रही है
शरीर में कोई हरकत न हो
हुई तो
खाल खिचवा कर
भर दिया जायगा भूसा

हमारे पास पुलिस है फ़ौज है
हम सत्ताधीश हैं
हमारी मौज ही मौज है

हमारे खिलाफ बोलने की
नापाक जुर्रत की
तो जबान कटवा ली जायगी
मुट्ठियाँ हवा में लहरायेंगे तो
हाथ तोड़ दिए  जायेंगे

हम बादशाह हैं
तुम्हारी अक्ल
ठिकाने आ जायगी
छींकेंगे तो नाक
कटवा ली जायगी
आँखें मत तरेरना
आँखें निकलवा ली जायेंगी


तुम्हे मालूम है
हम जम्हूरियत के
नए खानदानी नबाव हैं ।










Saturday, 10 August 2013

जातिवाद वास्तविकता है , सचाई नहीं किन्तु वह ऐसी वास्तविकता  है जो सचाई को लगभग अदृश्य रखती है । आगे बढ़ने और राज करने की पग-डंडी  भी है । आदमी सबसे आसान रास्ते पर चलता है , जो विश्वसनीय भी हो । यह सभी जातियों के लिए अदृश्य आरक्षण का असरदार काम करता है ।
विडंबना है कि हमारे यहाँ   व्यक्ति के मन में   एक जातिवादी चोर छिपा रहता है । वह गाहे-बगाहे प्रकट हो जाता है । जबकि कोई जाति  विशेष का अमीर व्यक्ति अपनी ही जाति  के गरीब की कोई खोज खबर नहीं लेता । ऐसा होता तो आज के बिरादरीवाद में कोई गरीब, असहाय और लाचार रहता ही नहीं । जातिवाद वोट लेने और गरीब मेहनतकश वर्ग को बहकाने के अलावा शायद ही और कोई काम करता हो । वह यदि किसी के काम आता है तो सिर्फ अमीर वर्ग के । वैसे हालात ये बना दिए गए हैं कि आज सबसे विश्वसनीय "जाति " ही रह गयी है ।
मीडिया वर्चस्ववादी ताकतों की वैध संतान नहीं है । आवारा पूंजी उसकी जननी है । उसे भी तथाकथित शिक्षित समुदाय ही चलाता है । मीडिया कर्म बिचोलिआ की भूमिका में रहता है । कभी कभी गरीब के काम भी आ जाता है जिससे उसकी थोड़ी बहुत विश्वसनीयता बनी रहे । वह आदमी की मानसिक गलियों में घुसकर उसी के हथियार से उसी को मारता है ।
जब लोगों को लोगों का सहारा नहीं मिलता और वह जहां जाता है वहीँ ज्यादातर लोग उसके साथ ठगी करते हैं तो वह , वही करने लगता है जो लुटेरे वर्ग के लोग करते हैं ।शायद उसे भी कुछ प्राप्ति हो जाय , पर कुछ मिलता कहाँ है । इस मामले में देश के शिक्षित समुदाय ने भी कोई बहुत गंभीर भूमिका अदा नहीं की ।  अविरत सुख और अविरत दुःख दोनों ही अंधविश्वासों को पनपाते  हैं ।
जो खजूर के पेड़ पर बैठकर
सत्ता का रथ
हांक रहे हैं
उनको नहीं मालूम कि
जमीन पर रेंगने वाली
एक चींटी भी
हाथी के प्राण ले लेती है

यह ठीक है कि
देश का संविधान और क़ानून
उनके लिए
एक फटी हुई पतंग का तरह है
ओहदा गुलामों की फ़ौज को
खडी  करता है

राज तो राज है
चाहे अंगरेजी हो
या मुगलिया
या हिंदी
पर जनता भी जनता है
और वह इक्कीसवीं सदी में रहती है
कुछ तो होगा ही
इक्कीसवीं सदी में ।









Friday, 9 August 2013

, धरती-आसमान ,हवा-पानी
सूरज -चाँद -सितारे
आग ,सभी की जरूरत
सभी के प्यारे
इनके रिश्तों के पीछे
एक तर्क है
पर सचाई और वास्तविकता में
कितना फर्क है
वास्तविकता इतनी प्रबल है कि
सचाई का बेड़ा गर्क है
जैसे हिन्दू-मुसलमान
वास्तविकता है ,
सचाई नहीं
जैसे बिरादरी वास्तविकता है
सचाई नहीं

वास्तविकता ,सचाई पर बोझ है
ये आपस में जितनी दूर हैं
सभ्यता उतनी ही बेरहम
और क्रूर है ।


















भिखारी ठाकुर की कला में जमीनी गंध और रंग घुले -मिले होते हैं ।  मुझे जौकहरा  में देखे ----बिदेसिया- की याद हो आई । भोजपुरी लोक-नाट्य की अद्भुत  प्रस्तुति। काश ,विभूति नारायण राय  की तरह हरेक लोक-कला प्रेमी को यह सुविधा होती  कि स्थानीय लोक-कला रूपों को लेकर वह कुछ ऐसा कर सके कि नवजागरण की एक नयी मुहिम हर स्तर पर चल सके ।
भिखारी ठाकुर की तरह हमारे यहाँ --अलीबख्शी ख्यालों की एक परम्परा रही है । जिसके अनेक कलाकार पाकिस्तान चले गए और यहाँ जो रहे ,वे गरीबी के बोझ के नीचे दबे रहे । चाहती तो अकादमियां यह काम कर सकती थी पर उनको बंदर-बाँट  से फुर्सत जो मिले ।
केशव भाई की कविताई कहीं बताशे सी तो कहीं गन्ने जैसी भी होती है जिसे चूसने ----ब्रज में चौखने ----में  दांतों की कुछ  ताकत भी लगानी पड़ती है । अन्यथा खुलईन ताल का सूखना हमारी संवेदना-बुद्धि से सिर से ऊपर होकर निकलने का ख़तरा रहता है ।
यदि कोई मन से सीखना चाहे तो हमारे पर्व-उत्सव भी कुछ न कुछ कहते ही हैं । पूंजीवादी और नव-उदारवादी व्यवस्था तो स्वयं आदमी को वस्तु  में बदल रही है फिर भी आदमी इन्ही संकरी गलियों  में से अपना रास्ता खोजने की कोशिश करता है ।  पर्व किसी सभ्यता - संस्कृति की पहचान भी होते हैं । इतिहास एक दिन में नहीं बना है । उसके बोध को बनाए रखेंगे तो पर्व बाधक न बन कर साधक बन जायेंगे । जिन्दगी में थोड़ी देर ही सही और चाहे बनावटी ही सही, कुछ मिठास -सी तो घोलते ही हैं ये पर्व-त्यौहार । सामूहिकता लाकर हम इनको भी पूंजीवादी व्यवस्था को बदलने का औज़ार बना सकते हैं ।

Thursday, 8 August 2013

आज सुबह सुबह
 जब अलवर के बाला किले पर
मेघ घिरे थे
और दूरदर्शन ---भारत छोडो आन्दोलन की
याद दिला रहा था
मेरा मन
ईद के संग
सावन के महीने में
तीज के हिंडोले पर
झूल रहा था
मुबारकबाद की फुहारें
भिगो रही थी
भीतर तक
काश हर दिन हो ऐसा ही
मेरे लिए नहीं सिर्फ
सबके लिए ।

लगता है वे
जैसे हैं वैसे ही रहेंगे
गोबरैला अपनी प्रकृति
नहीं छोड़ पाता
पर आदमी छोड़ देता है
बशर्ते वे आदमी होने की
हैसियत रखते हों । 
जो फर्क समय के
उलटफेर में हैं
वही 'सुनो कारीगर 'के
कवर के घेर में है
पहला आदमी का है तो
दूसरा उसकी नक़ल का ,
दूसरा नयी हवा का है तो
पहला असल का ।

दोनों के बीच समय
पतंग की तरह
उलझा हुआ है
प्रिय कविवर
जो सुलझना चाहता है ।

Wednesday, 7 August 2013

हामिद की ईद

आने ही वाली है
हामिद की ईद
लाने ही वाली है
भरकर खुशियों की टोकरी
पर ,हामिद की खुशी
अपनी दादी को लोहे का
एक चिमटा
खरीदने  में है

वह जानता है
कि बिना चिमटे के
हाथ जलते हैं दादी के
रोटी पलटते हुए ।

ईद को हामिद के अलावा
कौन है जो समझ पाया है ?
शायद दूसरा कोई नहीं ।






जिन्दगी बोझ सिर्फ उन लोगों के लिए होती है , जो इसे जीते नहीं ,ढोते  हैं । काश, जीने की इस  कला को हम मेहनतकशों -किसानों   से सीख पाते  । साहित्यकार की  पैनी दृष्टि का यही तो कमाल होता है कि वह आदमी को भीतर तक जाकर इस तरह देख लेती  है कि जीवन का औदात्य उझलने  लगता है ।जीवन के वे संघर्ष प्रत्यक्ष होने लगते हैं जो अनुदात्त से लगातार लड़ते हैं और इस प्रक्रिया में झूठ का पर्दाफ़ाश भी करते चलते हैं । इसीलिये  उदातता  की तलाश होती है सरलमना कविता ।
अकेले नहीं हैं वे
उनके साथ प्रतिरोध की
लम्बी कहानी हैं
वे खुशबू की तरंगों में
 कृपाण  की तरह
प्रस्तुत हुए

अकेले नहीं हैं वे
जिनको सत्ता का मद है
वे नहीं जानते
उसका भूत
उनका ही पीछा करने लगता है
जैसे दुर्गा से
कँवल भारती तक ।

Tuesday, 6 August 2013

वे सब कुछ हड़प
लेना चाहते हैं
दौलत, संपदा, वैभव ही नहीं
हमारा ईमान ,हमारा सोच
हमारी आज़ादी

उनकी आकांक्षाएं
अँधेरे से ज्यादा डरावनी हैं
उनकी इच्छाओं के विषैले  दांत
उखाड़े बिना
यह रास्ता ऊबड़खाबड़  ही रहेगा

ये विषदंत टूटेंगे
बादल छंट रहे हैं
हिम्मत के मैदानों पर
 गुलाबी रोशनी है
एकजुटता के आँगन में
हलचल और आवाजाही है ।











Thursday, 1 August 2013

मेघों के बिन बरसे चले जाने पर


डेरा जमता है
बादलों का
जैसे चुनावी सभा में
लाए गए हों लोग किराए पर

अभी तक
जय समंद बाँध में
एक टपका पानी नहीं

सीली  सेढ़ भी
तरस रही
ऊपरा चलने को

रूपारेल बह रही है
किसी वृद्धा की
गति की तरह

अरावली पर घिरी
मेघ घटाएं
क्यों हो गयी हैं
सफेदपोश नेताओं -सी
कहीं वैश्वीकरण की हवा
उनको भी तो नहीं लग गयी है






डेरा जमता है
बादलों का
जैसे चुनावी सभा में
लाए गए हों लोग किराए पर

अभी तक
जय समंद बाँध में
एक टपका पानी नहीं

सीली  सेढ़ भी
तरस रही
ऊपरा चलने को

रूपारेल बह रही है
किसी वृद्धा की
गति की तरह

अरावली पर घिरी
मेघ घटाएं
क्यों हो गयी हैं
सफेदपोश नेताओं -सी
कहीं वैश्वीकरण की हवा
उनको भी तो नहीं लग गयी है